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________________ है। तभी हम सुरक्षित रह सकेंगे । सब कुछ मिटा कर सर्वथा नव रचना और नव निर्माण होना चाहिए । ऐसा कहना भी निरी मूर्खता है । नव रचना एवं नव निर्माण तो पूर्णविध्वंस के पश्चात ही हुआ करता है । बुरे के साथ अच्छे का विध्वंस तो कोई बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य नहीं होगा । इसलिए हमें पुनर्निर्माण और पुनर्रचना की नहीं, संस्कार एवं परिष्कार की आवश्यकता है । हमें तो पुरातन का परिष्कार करते हुए उसमें नूतन का संस्कार करना है । हमें पुरातन को नूतन से और नूतन को पुरातन से सजाना है । पुरातन में जो श्रेष्ठ है, सत्य है, उसे स्वीकार करके शेष का नव संस्कार नव निर्माण करना ही वर्तमान युगबोध और स्वस्थ एवं सही परिवर्तन है । महावीर शताब्दी के सन्दर्भ में भगवान महावीर ने भी तो अपने युग में यही सब कुछ किया था । उन्होंने अपनी धर्म संस्थापना के समय परिष्कार संस्कार आदि बहुत कुछ किया था । तभी तो जैन धर्म आज तक उसी प्रकार स्थिर और शाश्वत रह सका है, अन्यथा कभी का समाप्त हो गया होता । भगवान महावीर ने पहले से चले आ रहे धर्म को, पार्श्वपरम्परा को ज्यों का त्यों ऐसे ही स्वीकार नहीं कर लिया । उन्होंने उसमें युगानुकूल अनेकानेक संस्कार और परिष्कार किए, बहुत कुछ परिवर्तन और संशोधन किए, तब जाकर उसका बिल्कुल नया शाश्वत रूप स्वीकार किया । आज समय की पुकार और युग की माँग है कि महावीर निर्वाण की इस पच्चीसवीं शताब्दी के संदर्भ में हम परिवर्तन की इन नई दिशाओं, नई आहटों और नई सम्भावनाओं को देखें, सुनें और चिन्तन की गहरी दृष्टि से उनका पुनर्मूल्यांकन करते हुए आचरण के क्षेत्र में ले आयें । आँखें खोलकर देखो, परखो, करो न बन्द बुद्धि के द्वार | छिन्न-भिन्न कर दो तमसावृत रूढ़िवाद का कारागार || जुलाई १९७५ Jain Education International (५३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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