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किन्तु ऊपर में लाखों लाख तरंगें जिधर देखो उधर ही उछलती हैं, नाचती हैं । सागर अन्दर में मौन है, किन्तु बाहर में दिन-रात अविराम गर्जता रहता है । वृक्ष अन्दर में जड़ों के रूप में स्थिर है, निश्चेष्ट है, किन्तु बाहर में पवन के झकोरों के साथ शाखाएँ झूम रही हैं, पत्ते खड़खड़ा रहे हैं, लगता है वृक्ष नाच रहा है, शाखाओं के सैकड़ों हाथ फैलाए । महावीर की स्थिति यही दुहरी स्थिति है । वह वीतराग हैं इसलिए अकर्ता हैं, और तीर्थंकर हैं इसलिए कर्ता हैं । महावीर का यह उभयमुखी आदर्श अपनाने की आज महती आवश्यकता है, आज के कुछ समाज और राष्ट्र धर्म के नाम पर सर्वथा निष्क्रिय होते जा रहे हैं । दूसरी ओर विज्ञान तथा क्रान्ति के नाम पर अनर्गल अंधा तूफान चल रहा है, जिसमें मानवता की जड़ें ही उखड़ी जा रही हैं । आवश्यकता है धर्म और विज्ञान के, अध्यात्म और क्रान्ति के यथोचित समन्वय की, महावीर के इस समन्वयवाद में ही जनमंगल के बीज छिपे हैं । उन्हें अंकुरित करने की अपेक्षा है। समय की पुकार है, उन्हें जल्दी से जल्दी अंकुरित किया जाए ।
जून १९७५
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