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विरोधाभास भी महावीरत्व
अनेक प्रसंग ऐसे हैं, उनकी कथनी और करनी में विरोधाभास मिलता है । एक ओर कहते रहे, पानी की एक बूँद में असंख्यात प्राणी हैं, दूसरी ओर गंगा जैसी महानदियों को उत्तर से दक्षिण में और दक्षिण से उत्तर में हजारों भिक्षुभिक्षुणियों के साथ पार करते रहे हैं । एक ओर तिलतुष मात्र परिग्रह से भी इन्कार, सर्वथा नग्न निरावरण तन है । तो दूसरी ओर स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हैं, शिर पर तीन-तीन छत्र हैं, चामर ढुल रहे हैं हजारों पताकाएँ फहरा रही हैं, दुन्दुभि बज रही हैं, पुष्प वृष्टि हो रही है । कितना अद्भुत विरोधाभास से भरा जीवन है महावीर का । मै कहता हूँ, यह विरोधाभास न हो तो वह महावीर कैसा, तीर्थंकर कैसा ? आज के कुछ संप्रदायवादी पंडित कुछ आचारी शब्दों को तोड़ मरोड़ कर, ठोक पीटकर उक्त विरोधाभास को मिलने में लगे हैं, और इसके लिए इतना असत्य का ढेर लगाया जा रहा है कि उसके नीचे महावीर का वास्तविक स्वरूप ही घनाच्छन्न हो रहा है । पर, उन्हें क्या पता कि यह विरोधाभास है, विरोध नहीं । विरोध जैसा झलकता है ऊपर में, किन्तु अन्दर में कहीं कोई विरोध नहीं है । व्यर्थ ही सम्प्रदायों के कुचक्र चल रहे हैं, और महावीर को अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मतान्ध मान्यताओं के अनुरूप वित्रित किया जा रहा है । यह सब भ्रष्टाचार है, क्यों कि जनता के समक्ष महावीर को महावीर के रूप में नहीं, अपितु अपने मतकल्पित रूपों में दिखाया ज रहा है । परन्तु आज की प्रबुद्ध जनता को कब तक भुलावे में रखा जा सकता है ?
महावीर चतुर्मुखी
आज जो जैनधर्म निष्क्रिय है, पिछड़ा हुआ है, उस का कारण महावीर का आदर्श नहीं है । अपितु वह मिथ्या आदर्श है, जो मध्यकाल में मतान्ध संप्रदायों ने निर्धारित किया है । महावीर चतुर्मुखी ब्रह्मा हैं, स्वयं जैनों की ही समवसरण में स्थित महावीर के सम्बन्ध में यह मान्यता है । आज भी अनेक चौमुखी पुरानी प्रतिमाएँ मिलती हैं, जो उस रूप की साक्षी हैं । अर्थ है, महावीर की दृष्टि चतुर्दिक् है ।
इस रूप का
समन्वयवाद में ही जनमंगल के बीज
सागर अन्दर में बहुत गहराई में शान्त है, निश्चल है, निस्तरंग है,
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