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महाश्रमण महावीर की उभयमुखी क्रान्ति
तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर के सम्बन्ध में अतीत में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, और वर्तमान में भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है । प्रस्तुत २५०० वे निर्वाण पर्व की स्मृति में तो इधर-उधर से इतना अधिक लिखा गया है, कि संभवत: कोई एक पाठक पूरे जीवन में उसे पढ़ पायेगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता
महावीर का सत्य एकान्त नहीं अनेकान्त
परन्तु एक बात है, जो इस लेखन पर मेरे मन में प्रायः उभरती रही है । वह यह कि महावीर को किसी एकांगी दृष्टि से चित्रित करना महावीर की अखण्ड विराट मूर्ति को एक खण्ड क्षुद्र रूप देना है । महावीर का सत्य एकान्त नहीं, अनेकान्त है क्योंकि महावीर बिन्दु दृष्टि के नहीं, सिन्धु दृष्टि के हैं । उनकी दृष्टि में बिन्दु सिन्धु का एक अंश अवश्य है, पर वह (बिन्दु) सिन्धु होने का दावेदार नहीं हो सकता । अस्तु, स्वयं महावीर को भी इसी व्यापक अनेकान्त दृष्टि से देखना होगा उनकी विस्तृत जीवनरेखाओं का, उनके व्यापक जीवनदर्शन का रूप जो कुछ मैंने इन दिनों इधर-उधर देखा है, वह अधिकतर एकांगी है । मैं यह मानता हूँ कि महावीर को पूर्णता में उपस्थित करना कठिन है, कठिन क्या, एक प्रकार से असंभव ही है । फिर भी इस दिशा में कुछ कदम तो रखने ही चाहिए थे, यावद् बुद्धि - बलोदयम् के रूप में कुछ तो प्रयत्न होना ही चाहिए था ।
महावीर का अध्यात्मवाद तो अनन्त है
अनेक लेखक महानुभावों ने महावीर के अन्तरंग आध्यात्मिक जीवन पर ही बल दिया है । उनकी दृष्टि में महावीर वीतराग थे, निःस्पृह और निःसंग । उन्हें समाज की गिरती पड़ती स्थिति से कुछ लेना देना नहीं था ।
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