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पथ पर कदम से कदम मिलाए समाज के नवनिर्माण में संलग्न हैं । अपने अपने योग्य दायित्वों को शानदार तरीके से पूरा करते हैं । यह ठीक है कि दोनों का दायित्व बाहर में विभक्त हैं, किन्तु अन्दर में वह अविभक्त है, इस प्रकार वे एक दूसरे के दायित्व के पूरक हैं, साधक हैं, बाधक एवं विघातक नहीं। नर नारी दोनों एक दूसरे पर आश्रित होते हुए भी अनाश्रित हैं अर्थात स्वतन्त्र हैं | अतएव वे दोनों परस्पर मित्र हैं, सखा हैं, दास और गुलाम नहीं । यही कारण है कि जहाँ पुरातन इतिहास में पुरुषों की प्रशंसा एवं महत्ता के अनेक उल्लेख मिलते हैं वहाँ नारी की महत्ता एवं श्रेष्ठता के भी अनेक दिव्य समुल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं। भारतीय संस्कृति के महान् संविधाता एवं उद्गाता आचार्य मनु ने इसी सन्दर्भ में कहा है — यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' जिस परिवार तथा समाज में नारियाँ पूजित हैं, सत्कृत हैं, वहाँ देवता क्रीड़ा करते हैं, अर्थात् सृजनशील दैवी शक्तियाँ सानन्द लीला करती हैं | कितना उदात्त संगान है नारी की दिव्यता का | इसी भाव को लक्ष्य में रखकर कभी नारी को 'देवी' के सम्बोधन से सम्बोधित किया जाता था। आज भी कुछ प्रसंगों पर यह सम्बोधन प्रचलित है, भले ही वह प्राचीन परम्परा के पालन का एक सभ्यतामूलक अहंमात्र रह गया है।
भारतीय नारी एक युग में केवल पत्नी ही नहीं धर्म-पत्नी होती थी अर्थात धर्मसाधना की सहभागिनी | पत्नी शरीर नहीं, इस के ऊपर कुछ और भी थी। राम सीताहरण के समय शरीर की सीता के लिए नहीं रोये थे । शरीर की सीता हजारों मिल सकती थीं, बल्कि सीता से कहीं अधिक सुन्दर, सुरूप भी । रघुवंशी सम्राट अज ने अपनी इन्दुमती पत्नी के लिए ठीक ही कहा था कि इन्दुमती मेरी गृहिणी, घर की स्वामिनी - राज्य शासन में योग्य परामर्श देने वाली मंत्री और प्रिय मित्र है - 'गृहिणी सचिवः सखी मित्रं'। पत्नी नारी का ही एक रूप है, उसके प्रति भारत में एक दिन यह कितनी उदात्त भावना थी । उस युग में आज जैसी क्षुद्र मनोवृत्ति न थी कि पत्नी पैरों की जूती है | पुरानी की जगह नई पहन लो, टूट जाने पर दूसरी बदल लो ।
पुरुष की आँखों ने अभी तक नारी को केवल बाहर से देखा है | अत: वह उसे काले-गोरे रंगों के रूप में सुन्दर असुन्दर आकृति के आयाम में ही ऑक रहा है, यह तो एक क्षुद्र चर्मकार की दृष्टि हुई; जो पशु का मूल्यांकन केवल चर्म के रूप में ही करता है । नारी को बाहर में नहीं, अन्दर देखना होगा ।
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