________________
जीवन - रथ के दो सुचक्र
रथ को लक्ष्य की ओर गतिशील होने के लिए दो चक्रों की अपेक्षा है । एक चक्र ( पहिया) से रथ कभी भी गतिमान नहीं हो सकता । कदाप्येकेन चक्रेण, न रथस्य गतिर्भवेत् ।' और दोनों चक्र भी आकार प्रकार में, ऊँचाई में बल आदि में सम होने चाहिए । दोनों में एक बहुत ऊँचा, एक बहुत नीचा, एक दुर्बल जर्जर और एक दृढ नवीन हो तो क्या रथ ठीक तरह से गति कर सकेगा ? प्रत्यक्षानुभव से सिद्ध है कि इस प्रकार विषम स्थिति वाले चक्र, रथ को गति देने में अक्षम होते हैं । चक्रों के समत्व में ही गति की साधकता है ।
परिवार एवं समाज रूप रथ के भी नर और नारी दो चक्र हैं । नर और नारी के समन्वित आधार पर ही तो परिवार और समाज का अस्तित्व है । एक दूसरे से शून्य समाज का कुछ अर्थ नहीं है । अतः परिवार एवं समाज को भविष्यकालीन विकास की ओर निरन्तर अग्रसर होने के लिए समुचित गति अपेक्षित है । और यह गति नर और नारी के योग्य समन्वय पर आधारित है । यदि दोनों में एक विकसित हो और एक अविकसित, एक विराट विशाल हो और एक क्षुद्र क्षुद्रतर, एक सशक्त सक्षम हो और एक अशक्त अक्षम, एक योग्य हो और एक अयोग्य हो तो न परिवार समुचित विकास की दिशा में गति कर सकता है, और न समाज | नर-नारी के योग्य समत्व में ही गति की क्षमता है । जहाँ दोनों में वैषम्य - ऊँचा नीचापन है, योग्य विकास का अभाव है, वहाँ परिवार और समाज का विकास अवरुद्ध हो जाता है ।
"
भारत के प्राचीन इतिहास बिन्दुओं पर दृष्टि जाती है तो हम नर और नारी दोनों को ही विकास के योग्य धरातल पर खड़े देखते हैं । उस युग का जैसे नर महान् है, उच्च पदस्थ है, कर्मक्षेत्र में रत है तो नारी भी उसी प्रकार उच्च एवं विराट कर्म रथ का एक सुचक्र हैं । दोनों ही अपने निर्धारित लक्ष्य
(४१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org