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जाने वाले महा-आरम्भ और महापरिग्रह नरक के द्वार है । समग्रभाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व हैं ।' 'और कुछ उच्चतर नहीं कर सकते हो तो आर्यकर्म तो करो ।' राजनीति के क्षेत्र में यह कितना महान उद्बोधन था ! कौन कह सकता है कि वैशाली - जनतन्त्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्यधर्म को यथारूप में ग्रहण करने के अभाव में नहीं हुआ ? यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्यभूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मी रूप में अपनाने का साहस करते तो वैशाली का जनशासन कभी विघटित नहीं होता । मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती ।
इतिहास का वातायन एक - एक अन्वेषी हृदय के लिए खुला हुआ है हम जितनी बार चाहें भगवान महावीर के जीवन पर दृष्टिपात कर सकते हैं । हमें उनके जीवन एवं सन्देशों से किसी भी समस्या का समुचित समाधान आज भी प्राप्त हो सकता है ।
जाती है जिस ओर दृष्टि, बस उसी ओर आकर्षण, करता अग जग को अनुप्राणित जग-नायक का जीवन ।
अप्रैल १९७५
५. ६-७.
स्थानांग सूत्र उत्तराध्ययन १३ वां अध्ययन
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