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________________ धर्म से शून्य हो गया और धर्म कर्म से | जीवन अखण्ड है, वहाँ ऐसा कोई विभाजन नहीं है । अखण्ड शरीर के सिर और धड़ अलग-अलग कर दिये जाएँ तो दोनों ही निष्प्राण हो जाएँगे । उस स्थिति में सिर सिर न रहेगा और धड़ धड़ नहीं रहेगा। दोनों का स्थान घर न रहेगा ; मरघट की दहकती चिता रहेगा । धर्म और कर्म भी अखण्ड हैं । उन्हें बीच में से काट कर अलग न कीजिए । हर कर्म धर्म है, यदि उसमें जनहित का व्यापक आयाम है, किसी उच्चतर जनकल्याण का संकल्प है । कर्ता का वही कर्म पाप या अधर्म होता है, जो व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थभावना से किया जाता है | येन-केन प्रकारेण केवल अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति कर लेना ही पाप है | जब व्यक्ति के कर्म का उद्देश्य या फल, मैं और मेरे की सीमा को लाँघ कर, हम और हमारे के व्यापक क्षेत्र में पहुँचता है, बहुजनहिताय बहुजनसुखाय के बौद्धिक आलोक में अपनी प्राप्ति के द्वार खोल देता है, तब हर कर्म धर्म हो जाता है। इस प्रकार बहुजनहिताय किये गये कर्म का विष निकल जाता है और वह अमृत हो जाता है । इसी सन्दर्भ में यजुर्वेद के महान तत्त्वद्रष्टा ऋषि का प्राचीन उद्घोष है कि " तेन त्यक्तेन भुंजीथाः।” अर्थात् त्याग पूर्वक ही भोग होना चाहिए | जो प्राप्त है, प्राप्त किया है, उसका पहले आसपास में, परिजन में, पुरजन में - यथास्थिति एवं यथाप्रसंग वितरण करो, तदनन्तर अपने न्यायोचित लाभांश का उपभोग करो । गीतादर्शन के महान उद्गाता कर्मयोगी श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं कि जो व्यक्ति केवल अपने वैयक्तिक स्वार्थ के लिए साधन सामग्री जुटाता है, उपभोग करता है, वह मात्र पाप का उपभोग करता है - " अघं स केवलं भुंक्ते, य: पचत्यात्मकारणात् ।" महाश्रमण तीर्थंकर महावीर ने भी यही घोषणा की थी कि जो साधक अपनी प्राप्त सामग्री का अपने आसपास के जनसमाज में यथोचित सम्यक् बँटवारा नहीं करता है, अकेला ही खा पीकर लमलेट हो जाता है, उसे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी - "असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ।" __ यह मार्ग है, कर्म को निर्मल और पवित्र बनाने का । कर्म . ल में जनता के प्रति व्यापक हित की दृष्टि रखने पर ही वह पवित्र धर्म बन जाता है । दो चार क्या, हजारों उद्धरण दे सकता हूँ, उक्त सत्य के समर्थन में | जब तक यह सत्य जनजीवन में व्याप्त रहा, कर्म के फल की धारा मुक्तरूपेण व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रवाहित रही, तब तक भारतीय समाज फूलता फलता रहा, समृद्ध होता रहा, धरती पर ही स्वर्ग को अवतरित करता रहा । और जब से कर्म वैयक्तिक स्वार्थ के क्षुद्र घेरे में बंद हो गया, अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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