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________________ जानेवाले साधारण निम्न-श्रेणी के लोगों का काम है और अपने लिये वही कर्म दूसरे से करा लेना ऊँचे और बड़े लोगों का प्रतीक है । वाराणसी के आसपास मुझे एक वृद्ध पण्डितजी मिले । बात चल पड़ी धर्मों की, दर्शनों की, स्वर्गों की, नरकों की और संसार एवं मुक्ति की । वार्ता ने काफी लम्बीचौड़ी दूर-दूर की परिक्रमा की । आखिर अतीत में से भटकती हुई वह वर्तमान में आ टिकी । पण्डितजी ने कहा - "महाराज, अब क्या है ? अब तो धर्म का नाश हो रहा है । नीच जाति के लोग सिरपर चढ़ रहे हैं । कोई काम ही नहीं करता । भगवान की दया से पचास-साठ बीघा जमीन है । कभी अच्छा गुजारा हो जाता था। घर में दस-पन्द्रह प्राणी हैं, लड़के हैं, पोते हैं, सब मौज उड़ाते थे | कमीण ( शूद्र, हरिजन आदि ) लोग खूब मेहनत से खेत में काम करते थे और बदले में थोडा बहुत दे दिया, उसी पर खुश रहते थे, हमारी जय-जयकार करते थे। पर, अब तो जमाना ही बदल गया । काम के बदले में इतनी माँग है कि सारी उपज वे ही हड़प जायँ । 'जोते उसकी धरती' का नारा काँग्रेस ने क्या दिया कि हम ऊँचे लोगों को तो उजाड़ कर ही रख दिया।" पंडितजी की बात लम्बी होती जा रही थी। मैंने बीच में ही रोक कर कहा कि "ऐसी स्थिति है, तो आप स्वयं खेती क्यों नहीं करते ?' प्रश्न सुनना था कि पंडितजी आश्चर्य की मुद्रा में बोले- “महाराज, आप शास्त्र के ज्ञाता है, ऐसी बात कैसे कहते हैं ? हम ब्राह्मण हैं । भला ब्राह्मण कैसे हल पकड़ सकता है ? शास्त्र में निषेध है न ! यह तो शूद्रों का काम है । ब्राह्मण भी यदि हल पकड़े, भूमि जोते, तो फिर शूद्र और ब्राह्मण में अन्तर ही क्या रह जायेगा?", मैंने काफी समझाया । आखिर मुश्किल से बात समझ में भी आई। फिर भी यहाँ अटक कर रह गई कि हमारी जाति के लोग हमें क्या कहेंगे ? हम उनकी निगाहों में गिर जायेंगे | लड़के-लड़कियों के नाते रिश्ते जाति में अच्छी जगह लेने बंद हो जायेंगे । वर्णाश्रम के नाम पर किए गये कर्म के विभाजन ने मानवजाति को किस दुःस्थिति में ला पटका है, यह है उसका एक साधारण सा उदाहरण । उक्त चर्चा से सम्बन्धित पण्डितजी का या उनकी जाति विशेष का यह कोई व्यक्तिगत दोष नहीं है । यह दोष है हमारे अतीत के गलत चिन्तन का । कर्म और धर्म के बीच में विभाजन की दीवार हमने ऐसी खड़ी कर दी कि कर्म (३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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