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________________ तो नहीं करता है ? साथ ही यह भी चिंतन मनन करो कि तुम्हारे उस कर्म से दूसरों का भी मंगल होता है या नहीं ? कर्म वही श्रेष्ठ है, जो स्व और पर दोनों के लिए मंगलमय हो, हितकर हो। जिस कर्म से दूसरों का अहित होता हो, दूसरों की हानि होती हो, दूसरों का उसमें से कुछ भी हितकर जैसा न मिलता हो, वह बाहर में कितना ही भव्य क्यों न हो, सर्वथा हेय है। और जब यह निश्चित हो जाय मनन के द्वारा कि यह कर्म स्वपरमंगलकारी है, इसमें निज-पर का हित साधन है, तो उसमें पूरे मन से उतर जाओ; अपनी पूरी विवेकशक्ति का उपयोग करो; और सब कुछ भूल जाओ। उसी में इतने विभोर हो जाओ कि तुम्हारा तन और मन उसी के रंग में रंग जाए । जीवन का कोई भी अंग, चेतना या कोई भी अंश ऐसा न हो, जो उसके दिव्यस्पर्श से अस्पृष्ट रह जाए। जैसे बिजली की झनझनाहट सारे शरीर में अनुप्राणित हो जाती है, उसी प्रकार निर्धारित कर्म से तुम्हारी चेतना का कण-कण अनुप्राणित हो जाना चाहिए। तभी वह कर्मयात्रा सफल होगी, सिद्धि द्वार पर पहुँचेगी । अन्यथा उस कर्म को तुम रोते हुए करोगे तब वह कर्म एक मुर्दा सड़ी हुई लाश को ढोने जैसा रहेगा | । सूर्य की हर तभी उनमें से देकर रह जाती प्रत्येक शुभकर्म के लिए एकाग्रता की बड़ी अपेक्षा है किरण दिव्य है, दीप्तिमती है । परन्तु जब वे केन्द्रित होती हैं, दहकती ज्वाला फूटती है; बिखरी हुई किरणें साधारण सा ताप हैं, ज्वाला नहीं जगा सकतीं । मन की भी यही स्थिति है । कितना ही अच्छा दीप्तिमान मन हो, यदि वह बिखरा हुआ है, इधर-उधर उलझा हुआ है, प्राप्त कर्म के साथ केन्द्रित नहीं हुआ है, तो वह कुछ नहीं कर पायेगा । स्वप्न के मन की तरह आलजंजाल में बिखर कर रह जाएगा । परन्तु ज्यों ही वह केन्द्रित होगा, तो उसमें से वह दिव्यज्योति प्रस्फुटित होगी, जो कर्म को प्राणवान बना देगी । केन्द्रित मन ही सिद्धि का द्वार खोलता है । फिर वह सिद्धि इस जन्म की हो, या किसी दूसरे जन्म की; लोक की हो, या परलोक की; संसार की हो या मोक्ष की । आज के युग की सबसे बड़ी जटिल समस्या यही है कि मनुष्य कर्म इधर करता है और मन कहीं उधर उलझाये रहता है । जीवन के दो खण्ड हो जाते हैं । मन की दिशा अन्य हो और कर्म की दिशा अन्य हो तो यही स्थिति (३०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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