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________________ पुरातनरूप में हैं । क्या कुछ नया परिवर्तन एवं परिवर्द्धन देखा है कभी किसी ने उनके आकार में ? यह सब अविकसित मन की स्थिति है । देवों की बड़ी महिमा है | बहुत ही अद्भुत एवं रंगीन वर्णन मिलते हैं दैवी वैभव के परम्परागत साहित्य में | किन्तु एक बात है, उन्हीं तथाकथित शास्त्रों के अनुसार वह सब वैभव इतना पुराना, इतना जराजीर्ण है कि कुछ पूछो नहीं । अनन्त असंख्यकाल से देवताओं के पूर्वभुक्त जूठन ही भोगते आ रहे हैं सभी देव ; यहाँ तक कि इन्द्र भी। कोई नया उत्पादन नहीं, नया अर्जन-सृजन नहीं । वे ही पुराने भवन, वस्त्र, शय्या, आसन, अलंकार आदि हैं । न कोई परिवार, न समाज, न संस्कृति । और तो क्या दंपती के रूप में मानवजाति ने जैसे विवाहसंस्कार का मंगलमय आविष्कार किया है, वह भी देवजाति में नहीं । देवजाति में पति-पत्नी नहीं , केवल शारीरिक भूख की पूर्ति के लिए नर-मादा हैं, जैसे कि पशु-पक्षियों में होते हैं । देवताओं का तन भी मानवाकार है । फिर भी विकास क्यों नहीं ? मानवजाति ने जैसे धरती पर नित नये विकास किए हैं, धरती और आकाश के बीच एक नई अद्भुत सृष्टि तैयार की है, और उसमें निरन्तर परिवर्तन एवं परिवर्द्धन किया है, ऐसा कुछ देवजाति में नहीं हुआ है, जैसा कि हमें पुरातन-साहित्य में पढने को मिला है । संस्कृति और सभ्यता के क्षेत्र में देवताओं के पास मानव जैसा कुछ भी तो उपादेय नहीं है । इसका अर्थ है देवों के पास मानव जैसी मन:शक्ति का अभाव है ! चिन्तन से ही चेतना जागृत होती है | जागृत चेतना से ही जीवन का परिष्कार नित नया मोड़ लेता मानव भाग्यशाली है, इस सन्दर्भ में कि उसे मननशील मन मिला है, चिन्तनशील चेतना मिली है । यदि वह अपने मन का उचित दिशा में उपयोग करे, मन की दिव्यशक्ति को कर्म में लगाए तो वह अपने देवजगत् से भी श्रेष्ठ एवं दिव्य मानवजगत् को बना सकता है । मानव सब कुछ कर सकता है, सब कुछ पा सकता है, यदि वह पूरे मन से निर्माण के क्षेत्र में उतरे तो । अधूरे एवं दुर्बल मन से कुछ नहीं होता है । __ जो भी कार्य करना हो, पहले यह सोचो कि वह युक्तिसंगत है, तर्कानुकूल है। उससे तुम्हारा अपना हित है, मंगल है । उससे तुम्हारी कोई हानि तो नहीं है? तुम्हारे जीवन को गंदा तो नहीं बनाता है, विकृत (२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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