________________
सक्रिय मन ही महान है ।
मानव की श्रेष्ठता तन से नहीं, मन से है । अनेक हजार फूल और पत्र ऐसे हैं, जो मानव के तन से कहीं अधिक सुन्दर हैं । मानव उन्हीं फूलों
और पत्तों से अपने तन को सजाता है; अपने को सुन्दर बनाता है । हजारों-लाखों पशु और पक्षी भी ऐसे हैं, जिनके सौन्दर्य की उपमा मानव के विभिन्न अंगों को दी जाती है । मानव की गति उपमित है गज और हंस की गति से; बल विक्रम तथा साहस उपमित है सिंह के बल, विक्रम और साहस से; वाणी उपमित है कोकिल की वाणी से । दो चार क्या शताधिक उपमाएँ मानवतन को पशु-पक्षी जगत से मिलती आ रही हैं हजारों-लाखों वर्षों से । इसका स्पष्ट अर्थ है मानव तन से नहीं, मन से ही श्रेष्ठ है ।
जितना विकसित मन मानव को मिला है, उतना अन्य किसी योनि में नहीं है । नरक के प्राणी अनादिकाल से दुःख भोग रहे हैं, पीड़ा पा रहे हैं । न उनके पास खाने को अन्न है, न पीने को पानी ; न वस्त्र है, न मकान है । जंगली पशुओं के पास तन छुपाने को मांद है, बिल है और पक्षियों के पास घोंसले हैं; किन्तु असंख्य नारक जीवों के पास तो वे भी कुछ नहीं । कितनी दयनीय स्थिति है ! तन तो उनके पास भी मानवाकार है, फिर भी क्यों नहीं वे अपना विकास कर पाते हैं ? स्पष्ट है, विकास का मूल स्रोत दिव्य मन है और वह मन की दिव्यता उनके पास नहीं है ।
पशु-पक्षी भी मानव जैसी विकसित भूमिका पर नहीं आ पाये हैं। जो पक्षी तिनकों का जैसा घोंसला हजारों वर्ष पहले बनाता था, वैसा ही आज भी बनाता है। जरा भी तो कोई परिष्कार एवं संस्कार उन घोसलों की रचना में नहीं हो पाया है । सुख-सुविधा की कोई भी तो युगानुकूल नई व्यवस्था नहीं हो पाई है | पशुओं के मांद अगर बिल सभी वैसे ही हजारों-लाखों वर्ष पहले के
(२८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org