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मखौल उड़ाने लगते हैं। और यह मखौल सुबह-शाम साधना के समय स्मरण किए जाने वाले भगवान् का होता है, राम और कृष्ण का होता है, महावीर और बुध्द का होता है। साथ ही मजाक होता है उनके द्वारा विहित जीवनपथ का और उस पर चलने वाले श्रध्दालु भद्र भक्तों का।
आजकल विदेशों के लिए मन्दिरों से मूर्तियाँ चुराई जा रही हैं। और भारी भरकम होने के कारण चुराई न जा सकें तो मूर्तियों का सिर ही काट कर ले जाते हैं। अभी अभी मध्यप्रदेश में ऐसा ही हुआ है | गुस्सा तो आता है, पर, वे तो हमारी धर्मपरम्परा से अपरिचित विदेशी हैं। उन्हें क्या लेना देना है हमसे, हमारी श्रद्धा से और हमारी श्रद्धा के केन्द्र भगवान से । उन्हें तो भगवान के कटे सिरों से अपना ड्राइंग रूम सजाना है, बस, और कुछ नहीं । पैसों के लोभी हमारे लोग ही इसके लिए माध्यम हैं, और आजकल यह बाजार बड़े जोरशोर से चल रहा हैं ।
खेद उन विदेशियों पर नहीं; उन लोगों पर है, जो अपने हैं, फिर भी अपने भगवान् के व्यक्तित्व एवं चरित्र का हनन कर रहे हैं। साथ ही श्रध्दालु जनहृदय का भी । एक तो युग ही अनास्था का है । कुछ लोग यों स्वत: ही अनास्था का काला कंबल ओढ़े फिर रहे हैं। और इस पर धर्मपरम्पराओं के अधिष्ठाता गुरु कहे जाने वाले महापुरुष भी अनास्था को और अधिक प्राणवान् बनाएँ तो क्या किया जाए ? अनर्गल फूहड़ आलोचनाएँ आलोच्य का शिरच्छेद करने वाली नहीं तो और क्या हैं?
मेरे एक स्नेही मुनि कविसम्मेलन में अपनी कविताएँ सुना रहे थे । उपस्थिति साधारण ग्रामीण जनता की ही अधिक थी, जो पहले से ही जैनों के प्रति अरुचि एवं अश्रद्धा का भाव लिए हुए थी। आजकल एक फैशन हो गया है कि जब भी हो, जैसे भी हो, व्यापारी समाज का, पंडे-पुरोहितों का, राजनीतिज्ञों का, नेताओं का, धर्मों का, और धर्मगुरुओं का खुला मजाक उड़ाना | कवि लोग दो-चार इधर-उधर की कविता सुना कर इसी हँसा-हँस की धरा पर आ जाते हैं। उनका उद्देश्य ही होता है-एकमात्र जनता को हँसाना, हँसा कर अधिकाधिक करताड़न की गुरुगर्जना से सभाभवन को गुँजा देना | उनकी सफलता भी तो इसी में है न? दूसरे कवि ऐसा कह रहे थे तो मुझे कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई।
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