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जरूरत है, सम्हलकर चलने की
वर्तमान युग की जनचेतना बड़ी विचित्र स्थिति में से गुजर रही है। क्या परिवार, क्या समाज, क्या राष्ट्र, क्या धर्म सर्वत्र एक ऐसा कुहासा छाया हुआ है कि कुछ भी परिलक्षित नहीं होता। एक सर्वथा नकारात्मक मन:स्थिति का चक्र घूम रहा है, जिधर देखो उधर ही| पुत्र पिता को नकार रहा है और पिता पुत्र को, पुत्री माँ को नकार रही है और माँ पुत्री को, शिष्य गुरु को नकार रहा है और गुरु शिष्य को। यहाँ तक कि भक्त और भगवान के बीच भी परस्पर नकार के स्वर गूंजने लगे हैं।
___ मैं हैरान हूँ कि यह क्या हो रहा है? यह ठीक है कि धर्म या समाज की किसी भी परम्परा में काल-दोष से कुछ दूषित तत्त्व आ जाते हैं, और कुछ अपने ही अंग भी जीर्णशीर्ण दशा में प्राणहीन होने के कारण अनुपयोगी हो जाते हैं। यथावसर उनका परिष्कार आवश्यक है। सड़े-गले दूषित अंश को साफ करना ही होगा। पर, इसका अर्थ यह तो नहीं कि धर्म एवं समाज की उपयोगी परम्पराओं को जड़ से ही उखाड़ कर फेंक दिया जाए। यह तो ऐसा ही होगा कि नाक पर बैठने वाली मक्खी को उड़ाने के लिए नाक ही काट दी जाय कि चलो, मक्खी के बैठने का अड्डा ही साफ।
भारतीय संस्कृति की विदेशी धर्मप्रचारक काफी मजाक उड़ाते रहे हैं। हमें गुस्सा भी आता रहा है, पर क्या कर सकते थे उनका। परतन्त्रता की लाचारी थी तब। अब भी बहुत से ऐसे ही लोग हैं, जो कुछ समझते नहीं हैं
और अपनी पुनीत सभ्यता की खिल्ली उड़ाते हैं। पर, इन सब पर दया ही आती है कि अज्ञान-ग्रस्त है बेचारे। कुछ और करें भी तो क्या?
परन्तु हजारों हजार बिच्छुओं का एक साथ दंश तो तब होता है, जब विद्वान मनीषी और गुरु कहे जाने वाले लोग ही छड़ेचौक अपनी परम्परा का
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