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इसलिए जब तक बाहर के भेदों में भी अभेद, अनेकत्व में भी एकत्व को ध्रुवदर्शन की तरह नहीं देखा जायेगा, तब तक सिर्फ ऊपरी जोशीले नारों, आकर्षक लेखों, संगठनों या लच्छेदार भाषणों से इन द्वन्द्वों का शमन नहीं होगा, और यह भी उतना ही ठोस सत्य है कि जब तक अनेकान्तदर्शन की समताभूमि पर वैचारिक समन्वय नहीं होगा, तब तक परस्पर संघर्ष विभिन्न रूपों में चलते ही रहेंगे । अहिंसा एक थोथी नारेबाजी रह जाएगी, वह रचना का रूप कभी नहीं ले सकेगी । मात्र साम्प्रदायिक स्थूल क्रियाकाण्डों से अहिंसा का नापतौल होता रहेगा । जीवन के हर क्षेत्र में, हर मोड़ पर अहिंसा के दर्शन दुर्लभ होंगे।
आचार की अहिंसा का मूल विचार में है। जब तक मन में कुछ नहीं है, तब तक तन में क्या होगा ? विचार की अहिंसा के बिना आचार की अहिंसा उसी प्रकार निर्जीव है, जिस प्रकार कि प्राण-चेतना के बिना शरीर और विचार की अहिंसा का सर्वोपरि शिरोमणि तत्त्व है, दुराग्रहमुक्त सत्यानुलक्षी सम्यक्
आग्रह |
अहिंसा का अर्थ है -सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्त्व का अर्थ हमने केवल स्थूल शरीरों का सह-अस्तित्व एवं सह-जीवन समझ लिया है। अहिंसा की वास्तविक उपलब्धि के लिए हमें आगे बढ़ना होगा । अहिंसा को मानसिक स्तर पर पहुँचाए बिना वह निष्प्राण एवं निर्जीव ही बनी रहेगी। जब तक हम दूसरों को ठीक तरह पहचानेंगे नहीं, अपने दृष्टिकोण के साथ सामने वाले के दृष्टिकोण को भी समझने का प्रयास करेंगे नहीं, अपने आंशिक सत्यों को पूर्ण सत्य मानने और मनवाने का दुराग्रह छोड़ेंगे नहीं, तब तक अहिंसा केवल बाह्य नाटकीय प्रदर्शन मात्र रह जाएगी, वह वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की सर्वतोमुखी प्राणवाहिनी धारा नहीं बनेगी।
विश्वशान्ति का आधार अहिंसा है। और अहिंसा का आधार मैत्री भावना है। मैत्री का अर्थ है - समत्व । न कोई हीन, न कोई उच्च। यह मैत्री ही है, जहाँ महान् देवपुरुष श्रीकृष्ण और दुर्दैवग्रस्त सुदामा विप्र एक धरातल पर खड़े होते हैं। और यह वृत्ति अपने अहं के विसर्जन से आती है। और यह विसर्जन तभी हो सकता है, जब कि अनाग्रह के प्राण तत्त्व - अनेकान्त - दर्शन को
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