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________________ समन्वय में ही अहिंसा का मूल है । अहिंसा का मूल वैचारिक समन्वय में है । मानवजाति में जहाँ-जहाँ पंथ या सम्प्रदाय, वर्ण या जाति, देश या विदेश आदि के जो भी अपने पराये के दन्द हैं, संघर्ष हैं, कलंक हैं, विग्रह हैं; वे सब विचारभेद से होने वाली घृणा से जन्म लेते हैं। किसी से घृणा न करो, किसी को पीड़ा न दो- यह उपदेश तब तक हवा में उड़ कर रह जाते हैं, जब तक कि विचारभेद में रहे हुए अभेद का दर्शन न किया जाए, विचारवैषम्य में भी समन्वय की अन्त:सलिला सरस्वती प्रवाहित न की जाए। अहिंसा, दया या प्रेम के नाम पर जो भी द्वन्द्रशमन के प्रयास हैं, वे सब आग पर उबलते-उफनते दूध पर पानी के छींटे देने के समान हैं । पानी के छीटे कुछ क्षणों के लिए उफनते दूध को शान्त कर सकते हैं, किन्तु उनके पास दूध के लिए शान्ति का स्थायी हल नहीं है | नीचे आग जल रही है तो वह गरमी देती ही रहेगी और दूध उबलता-उफनता ही रहेगा। दूध की स्थायी शान्ति के लिए नीचे की आग का दूर होना, आवश्यक ही नहीं, अतीव आवश्यक है । यही बात परिवार, समाज, राष्ट्र धर्म एवं दर्शन के द्वन्द्वों के सम्बन्ध में भी है। जब तक अपने विचारों का दुराग्रह रहेगा, अपनी मान्यताओं का मोह रहेगा, स्वयं को पूर्ण सत्य और दूसरों को झुठलाने का कदाग्रह बना रहेगा, तब तक ऊपर के एकता और संगठन के नारों की चेपाचेपी से कुछ नहीं होनेवाला है, फिर भले ही ये किसी भी क्षेत्र में हों । सत्य अनन्त है। उसका कोई एक ही पहलू नहीं है । देश, काल, व्यक्ति आदि के जिन विभिन्न कोणों से उसे देखोगे, वह आपको एक दूसरे से भिन्न रूप में ही दिखाई देगा | वृक्ष के मूल-जड़, स्कन्ध-तना, शाखा, पत्र, पुष्प और फल क्या एक-दूसरे से परस्पर मिलते हैं ? नहीं मिलते हैं । मूल स्कन्ध से नहीं मिलता, स्कन्ध शाखा से नहीं | इसी प्रकार पत्र, पुष्प और फल भी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। फिर भी वृक्ष उनमें परिव्याप्त है, परिलक्षित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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