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समाचारपत्रों में मुझे गालियाँ देते हैं । दें, उनकी इच्छा है । मैं गालियों से तो क्या, गोलियों से भी अपना पथ बदलने वाला नहीं हूँ । जो मुनि है, वह तर्कमुनि ही है; बिना तर्क के कोई मुनि बन ही नहीं सकता । मुनि के मूल में मनन ही तो है 'मननात् मुनिः' । जो मनन करता है, चिन्तन करता है, वह मुनि है। मनन से ही सत्य पर का आवरण दूर होता है, फलतः सत्य का शुद्ध मूल रूप चमकता है। जुगनू जब तक निष्क्रिय बैठा रहता है, नहीं चमकता है, ज्योतिर्मय नहीं होता है । जब वह उड़ता है, अपने पंखों को गति देता है, तभी वह दीप्तिमान होता है । अपने चिन्तन को गति दो, बुद्धि के तर्क-पंखों को गतिशील बनाओ, सच्चे अर्थों में मुनि बनो, तभी आपका सत्य ज्योतिर्मय होगा | अन्यथा वह अन्धकार में डूबा रहेगा । आँख बन्द करके चलने वाला व्यक्ति कदम कदम पर ठोकर नहीं खाएगा, तो कौन खाएगा ? क्या आँख खोलकर चलने वाला खाएगा, आपकी सुमति में ?
श्रद्धा श्रद्धा है । वह अन्ध-विश्वास नहीं है । श्रद्धा में सत्य प्रदीप्त होना चाहिए । श्रद्धा की निरुक्ति ही है श्रत् सत्यं दधातीति श्रद्धा ।' जो अपने में सत्य को धारण किए रहती है, वह श्रद्धा है। सत्य के अभाव में श्रद्धा का कुछ अर्थ नहीं है । सत्य की सत्य के रूप में सर्वांगीण परीक्षा होने के बाद जो उसके प्रति 'इदमित्थमेव' के रूप में निष्ठा होती है, वही सच्ची श्रद्धा होती है । इस श्रद्धा से अमरमुनि रिक्त नहीं हैं । कोई भी मुनि यदि वह मुनि है तो श्रद्धा से रिक्त नहीं हो सकता । श्रद्धा का तर्क से विरोध नहीं है । अपितु वे एक दूसरे के पूरक हैं । बिना तर्क एवं परीक्षण के श्रद्धा अन्धी है । और यह अन्धी श्रद्धा भला साधक का क्या कल्याण कर सकती है ? आज जो इधर-उधर की धर्मपरम्पराओं में विकृतियाँ आ गई हैं, गन्दगी जम गई है, अनेक मिथ्याचार फैल गए हैं, वे सब विवेकमूलक तर्क एवं चिन्तन के अभाव में ही पनपे हैं । इस विकृतिरूप गन्दगी को परीक्षाप्रधान तर्क से ही दूर किया जा सकता है । हंसबुद्धि से सत्यासत्य के क्षीर-नीर का विवेक करो, हंस बनो, बगुले नहीं ।
जून १९७४
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आँख खोल कर देखो, परखो, करो न बंद बुद्धि के द्वार । छिन्न-भिन्न कर दो तमसावृत, रूढिवाद का कारागार ||
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