________________
भक्ति प्रदर्शन नहीं, दर्शन है
भक्ति केवल संस्कृत, प्राकृत या हिन्दी आदि में दो-चार स्तोत्र पढ़ लेना, पूजा-पाठ कर लेना मात्र ही नहीं है। यह तो अपनी-अपनी धर्म-परम्पराओं के अनुसार केवल वातावरण का निर्माण करना मात्र है।
सही और यथार्थ भक्ति तो अपने आराध्य देव से एकाकार हो जाना है, किसी भी सुख-दुःख आदि की स्थिति में उससे विभक्त अर्थात् पृथक् न होना है । हर क्षण प्रभु के साथ रहो, अर्थात् उसे मन में विराजित रखो, उसकी पुण्य-स्मृति में रहो । जब भी और जो भी निज या पर के हित की दृष्टि से काम करना हो, अपने आराध्य को स्मरण करते हुए करो । भगवत्स्मृति के साथ किया जाने वाला कार्य पवित्र होता है, उसमें से अमंगल एवं विक्षेप के दोष दूर हो जाते हैं | भक्ति को यथाप्रसंग योग्य शक्ति एवं विवेक बुद्धि प्राप्त होती रहेगी, जिससे प्रारब्ध कार्य सुचारु रूप से सफलता के साथ संपन्न होगा । यदि दुर्दैव से कभी कार्य संपन्न न भी हो, तब भी भक्त के हृदय का आनन्द तो कहीं न जाएगा, उसका समत्व अबाधित बना रहेगा ।
अनन्त असीम भगवज्ज्योति की स्मृति में ज्ञान-चेतना बनी रहेगी, इसलिए कि भगवान ज्ञान स्वरूप हैं । सुख और दुःख से परे एक अनिर्वचनीय आनन्द है । प्रभु की दिव्य भक्ति एवं उपासना में वह आनन्द बना रहेगा इसलिए कि भगवान् अखण्ड अनन्त आनन्द स्वरूप हैं । अन्तर्मन विकारों की मलिनता से मुक्त होकर शुद्ध, निर्मल एवं निर्विकार होगा, इसलिए कि भगवान स्वयं पूर्ण शुद्ध, निर्मल एवं निर्विकार हैं । मनोविज्ञान का युग-युग से परखा हुआ यह त्रिकालाबाधित सिद्धान्त है कि जो जैसा स्मरण करता है, जो जिसकी भावना करता है, वह वैसा हो जाता है । होने में देर-सबेर व्यक्ति की अपने अन्दर की भावात्मक तीव्रता एवं मन्दता पर आधारित है ।
(२४७).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org