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भक्ति का फल अन्ततोगत्वा भगवान होना है । इससे नीचे के जो भी स्थान हैं, प्राप्तव्य हैं, वे मात्र बीच के विश्राम हैं, पडाव हैं । वे अन्तिम नहीं हैं, साध्य नहीं हैं । अन्तिम तो भक्ति के माध्यम से भक्त का भगवत्स्वरूप हो जाना है । इसकी एक निश्चित प्रक्रिया है शुद्ध एवं सात्विक मन में से ही शुद्ध भक्ति की धारा प्रवाहित होती है । मन को पवित्र बनाये रखने के लिए उसे काम-वासना से, भोगासक्ति से, दुर्व्यसनों से मुक्त रखना होता है । संयम एवं सदाचार में एकाग्रभावना से लीन करना होता है । विकृत अर्थात् विकारग्रस्त कदाचारी मन में भगवान का कैसे निवास हो सकता है ? उसमें तो शैतान का ही वास होता है । राम और रावण एक आसन पर न कभी बैठे हैं और न बैठेंगे । दिन और रात का अन्धकार और प्रकाश का एकत्र समवाय कैसे हो सकता है ? भगवान की शुद्ध मन से निष्काम भक्ति करने वाला कभी कोई पापाचार नहीं कर सकता । यदि कोई पापाचार, दुराचार करता है, वह भक्ति नहीं, भक्ति का दम्भ करता है । दम्भ भक्ति का घोर शत्रु है । साधना में दम्भ आया नहीं कि साधना का अमृत, अमृत न रहकर विष हो जाता है, विष हलाहल विष, जो जन्म-जन्मान्तरों तक साधक को अज्ञान, मोह, माया और इनके फल स्वरूप त्रिविध ताप के नरक कुण्ड में डाल देता है । अतः भगवद् दर्शन के लिए प्रदर्शन से दूर रहो, अपने को लोक दिखावे से अलग रखो । जो भी हो, जितना भी हो, सरलभाव से हो, निश्चल मन से हो । दम्भ भक्ति भक्ति के पवित्र भावदेह में कैंसर है, विष ग्रन्थि है । शुद्ध, सरल एवं स्वच्छ मन से अल्प से अल्प भी, क्षणभर भी यदि भगवल्लीनतारूप भक्ति हो जाए, तो वह अन्तर्जीवन को दिव्य आलोक से प्रकाशमान कर देती है । अनन्त काल से गहराती आई अमारात्रि सुप्रभात में बदल जाती है । अपेक्षा है निष्ठा की, विवेक की, सांसारिक सुखों में अनासक्ति की, अविचल भगवद्भावना में निमज्जित होने की ।
धैर्य की, सर्वतोभावेन
राजमहल में हो या झोंपड़ी में हो, नगर में हो या निर्जन वन में हो, अकेले में हो या हजारों में हो, जिसके अन्तर्मन की भाव - वीणा पर भक्ति का स्वर झंकृत रहता है, भक्ति का ब्रह्मनाद अनुगुंजित रहता है, वह प्रदर्शन का नहीं, प्रभु-दर्शन का सच्चा भक्त है 1 प्रभु प्रेम की लौ उसके मन की दीवट पर सदाकाल जलती रहती है । सुख दुःख की, यश-अपयश की, हानि-लाभ की तूफानी आँधियाँ आती हैं, चली जाती हैं । किन्तु, प्रभु प्रेम की लौ को कभी बुझा नहीं सकती । यही वह लौ है, जो आगे चलकर अनन्त
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