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आँख खोल कर देखो, परखो
आज मानव के ज्ञान की सीमारेखाएँ काफी विस्तार पा रही हैं । मानव का मस्तिष्क अपनी पुरानी सीमाओं को बहुत दूर तक लांघ चुका है । उसने पृथ्वी के अन्तर्गर्भ में बहुत कुछ खोज निकाला है, समुद्रों को तलैया की तरह खंखोल डाला है, आकाश में सुदूर नक्षत्रलोक को अपने परीक्षण में ले आया है । आज मानव के राकेटयान मंगल, बुध, शुक्र आदि पर उड़ान भर रहे है, जो कभी अतीत में देवता के रूप में पूजे जा रहे थे, मनुष्य के भाग्य के निर्माता थे। चन्द्रलोक पर तो मानव उसी तरह विचरण कर रहा है, जैसा कि वह इस भूमंडल पर निर्द्वन्द्वभाव से विचरण करता है । चन्द्रलोक की दैवी मिट्टी का अपनी प्रयोगशाला में परीक्षण कर रहा है कि वह क्या है, उसमें क्या कुछ गुणधर्म हैं, विशेषताएँ हैं ?
पुराने विश्वास, जो लाखों वर्षों से चले आए थे, टूट रहे हैं, ध्वस्त हो रहे हैं । कुछ लोग हैं कि इस पर जरूरत से ज्यादा परेशान और हैरान हैं । वे श्रद्धा के नाम पर दुहाई दे रहे हैं कि यह सब झूठ है, धोखा है। दुनिया को विज्ञान के नामपर मूर्ख बनाया जा रहा है । यह सब धर्म को ध्वस्त करने का षड्यन्त्र है। ये लोग मानवबुद्धि को इधर उधर की सुनी सुनायी अर्थहीन बातों को मात्र मान लेने के लिए मजबूर करते हैं । उनकी दृष्टि में मूल तथ्य को जान लेने की बात सोचना पाप है । उनका धर्म एवं दर्शन केवल सुनने के लिए है, देखने के लिए नहीं, परखने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं । जो अतीत से आ रहा है, उसे सुनो और मानो, देखो और परखो नहीं । इनके यहाँ कान हैं, आँखें नहीं ।
मैं देख रहा हूँ, मानव मस्तिष्क को, मानवबुद्धि को कुछ लोग बिल्कुल निष्क्रिय कर देना चाहते हैं। ज्यों ही मानव की अन्तर चेतना हल चल में आती है, इनकी बौद्धिक भूमि पर भूकम्प के झटके लगने लगते हैं और वे पुकारने
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