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अन्यथा वह एक दिन सारे शरीर को विषाक्त बना देगा और अन्तत: मौत के घाट उतार देगा ।
रीति-रिवाज मूल में धर्म हैं ही नहीं । उन्हें धर्म कहना ही भूल है, ये तो समाज के सामयिक रूप हैं । सामाजिक परिवर्तन के साथ परिवर्तित होते रहते हैं | उन्हे शाश्वत सत्य मान लेना, उन्हें असत्य में बदलना है, विकृत कर देना है । यह मिथ्यात्व नहीं तो और क्या है ? चिन्तन की स्वच्छता अनाग्रह में है; सत्य न प्राचीनता में है, न अर्वाचीनता (नवीनता) में है । वह तो एक मात्र समीचीनता में है | समीचीन ही सत्य होता है । कोई भी पूर्वाग्रह हो, धर्मपरम्परा का हो या समाज-परम्परा का, मुक्त एवं तटस्थ चिन्तन के अभाव में वह सत्य को धूमिल ही करता है, निर्मल नहीं । अन्तर्मन को पूर्वाग्रह से मुक्त रख कर ही सत्य का दर्शन हो सकता है । सत्य के प्रति अभिनिवेश की भावना या भाषा जीवन का अभिशाप है । आजकल राजनीति, धर्म, समाज या अन्य किसी भी पक्ष-विपक्ष को लेकर जो विग्रह हो रहे हैं, लूट-पाट, गाली-गलौज, आगजनी या हत्याएं हो रही हैं, इन सबके मूल में मान्यताओं के अन्ध आग्रह हैं, दुरभिनिवेश हैं। ये सब मानवता के पवित्र मस्तक पर कलंक के काले धब्बे हैं। उन्हें मुक्त एवं व्यापक चिन्तन के द्वारा ही साफ किया जा सकता है ।
मई १९७४
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