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________________ बैठा । एक सूंठ की गाँठ लेकर पंसारी की दुकान का बोर्ड लगा बैठना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है ! सत्य के लिए व्यापक, साथ ही मुक्त चिन्तन की अपेक्षा है । प्राचीन धर्मसूत्रों एवं लोकसूत्रों में जो कुछ कहा है, वह किस अपेक्षा से कहा है ? उस समय कौन देश था, कौन व्यक्ति थे, समाज की क्या स्थिति थी, जनता की क्या अपेक्षाएँ थीं - यह सब निरीक्षण तथा परीक्षण करना, आवश्यक है। शाश्वत सत्य समग्र विश्व का एक होता है । न उसकी कोई आदि होती है और न उसका कोई अन्त होता है । वह अजर-अमर है, जन्म जरा मरण की सीमाओं से परे है। परन्तु लोकव्यवहार में आने वाला सत्य परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । वह न कभी स्थायी हुआ है, और न कभी होगा | उसे देश, काल, व्यक्ति, समाज और उनकी परिवर्तित स्थिति के अनुसार बदलना ही होगा। यदि वह न बदला गया तो अनुपयोगी होगा, सुख के बदले दुःख का कारण होगा। शीतकाल में सर्दी से बचने के लिए मोटा ऊनी कंबल गर्मी के तपते दिनों में भी चारों ओर लपेटे रखना, क्या अर्थ रखता है ? गर्मी या बरसात के दिनों में काम आने वाले हलके-फुलके मल-मल के वस्त्र यदि तन को चीरती कड़ाके की सर्दी में कोई पहने रखने का दुराग्रह करे, तो वह जनता में कितना मूर्ख प्रमाणित होगा? युग का सत्य अपने युग तक ही सत्य होता है । युग के बदलते ही वह असत्य हो जाता है । धर्मों के जितने भी बाह्याचार हैं, विधि-निषेध हैं, क्रियाकाण्ड हैं, नियमोपनियम हैं, वे शाश्वत नहीं होते । यदि ये शाश्वत होते, तो एक तीर्थंकर के बाद दूसरे तीर्थकर की कोई अपेक्षा नहीं होती, एक महापुरुष के बाद दूसरे किसी महापुरुष की जरूरत नहीं होती | महापुरुष एक दूसरे की कार्बन कॉपी नहीं होते। हर महापुरुष देश-कालानुसार नियमों में, विधिनिषेधों में संशोधन करता है, काट-छाँट करता है । जो विधि-निषेध प्राणवान् है, सजीव है, अभी कुछ और समय तक उपयोगी है, उन्हें सुरक्षित करता है, और जो जीण-शीर्ण हो गए हैं, निर्जीव एवं मृत हो गए हैं, अपनी उपयोगिता खो बैठे हैं, उन्हें अपने सत्यानुलक्षी तर्क के पैने कुठार से काट कर दूर फेंक देता है और उनके स्थान में प्राणवान उपयोगी नए विधि-निषेधों को फिट करता है, | समाज शरीर है । उसका कोई भी अंग दूषित हो जाए, सड़ जाए, विषाक्त हो जाए तो उसे तकरूप आपरेशन के द्वारा काट कर अलग करना ही होगा । (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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