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लगते हैं, चुप रहो ! तुम्हें सोचने, समझने, देखने, परखने का कोई अधिकार नहीं है ! तुमने जरा भी कहीं अपनी तर्कबुद्धि का प्रयोग किया कि बस, पाप में डूब जाओगे, नरक में धकेल दिए जाओगे ।
__ मैं पूछना चाहता हूँ, क्या धर्म इतना दुर्बल है, इतना छुईमुई है कि तर्क का स्पर्श पाते ही वह कुम्हला जाता है, अपना तेज खो बैठता है ? क्या वह इतना पुराना जर्जर, जीण-शीर्ण खंडहर है कि तर्क का धक्का लगते ही धराशायी हो जाएगा, ईंट-ईंट के रूप में बिखर जाएगा ? यदि ऐसा है, तो फिर ऐसे धर्म की क्या उपयोगिता है ? वह हमारे जीवन-निर्माण में क्या योगदान कर सकता है? ऐसा धर्म, मेरे विचार में तो कल खत्म होता हो तो आज ही हो जाए । हमें जीवित एवं सप्राण धर्म की आवश्यकता है, प्राणहीन मृत धर्म की नहीं ।
धर्म एक जीवित शक्ति है । वह हमारे जीवन के कण-कण में . निरन्तर प्रज्वलित रहने वाली दिव्यज्योति है, जो तर्क के हजारों-हजार तूफानी झंझावातों से भी बुझने वाली नहीं है । और जो बुझ जाएगी, वह धर्म की ज्योति नहीं है, कुछ और है और उसे बुझ ही जाना चाहिए । जो लोग तर्क से घबराते हैं, अपने धर्म को तर्क से बचाना चाहते हैं, उनकी अपनी दृष्टि में ही धर्म खरा स्वर्ण नहीं है, स्वर्ण के रूप में छिपा हुआ पीतल है । खरा स्वर्ण परीक्षण से भला क्यों डरेगा ? एक बार क्या, हजार बार दहकती आग में डालो, कसौटी पर कसो, काटो, छेदो, कुछ भी करो | स्वर्ण स्वर्ण है, वह अधिकाधिक दीप्त होता जाएगा, चमकता-दमकता जाएगा । किसी भी हालत में वह काला नहीं पड़ेगा । स्वर्ण का नकली जामा पहनने वाला पीतल ही परीक्षा से घबराता है कि कहीं मेरी पोल न खुल जाए | कस्तूरी यदि असली है, नकली नहीं है, तो उसको प्रमाणित करने के लिए सौगंद खाने की क्या जरूरत है ? 'नहि कस्तूरिकामोदः पर्धन विभाव्यते ।
श्रमण भगवान महावीर धर्म को परखने का सीधा आह्वान करते हैं । गणधर गौतम ने उनकी वाणी को उपस्थित करते हुए कहा है कि ' पण्णा समिक्खए धम्म।' मानव की अपनी प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा कर सकती है । धर्म को दूसरों की शब्दरूप आँखों से नहीं, अपनी चिन्तनरूप प्रज्ञा की आँखों से देखो। महावीर स्वयं चक्षुष्मान् हैं, और दूसरों को भी चक्षुष्मान् बनाना चाहते हैं । नमोत्युणं सूत्र के अनुसार वे 'चक्खुदयाणं' हैं, 'सद्ददयाणं' नहीं | वे जिज्ञासु
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