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आधारित मोह छोड़िए, और जो वर्तमान तथा भविष्य के लिए उपयोगी आदर्श हों, उन्हें अन्तर्विवेक से परीक्षित कर आदर भाव से अपनाइए । पुरातन का संशोधन अपेक्षित है । आँख मूंद कर कुछ नहीं होना चाहिए । 'बुद्धे फलं तत्वविचारणं च ' का बोध-सूत्र आप के हर विचार और आचार के परीक्षण की कसौटी है | अतीत का उपयोगी अंश सुरक्षित रखिए, युगानुरूप अपेक्षा हो, तो नयी परंपराओं एवं मान्यताओं की स्थापना कीजिए। मैं नया वर्ष हूँ मुझे ताजगी चाहिए । समय की मार से अनुपयोगी हो जानेवाली बासी बातें मुझे कतई पसन्द नहीं हैं ।
स्पष्ट है, अब आपको पुरातन में नहीं, मुझ नये में जीना है । नये में ही सोचना है, समझना है, सांस लेना है, चलना है, घूमना है, खड़े होना है, कर्म करना है, ओर कृत कर्म का फल भोगना है । अत: अपने मन-मस्तिष्क को सृजनशीलता के पथ पर सक्रिय रखिए । कुछ ऐसा नया सोचिए, जो वर्तमान में से भविष्य की ओर जीवन-यात्रा करती हुई प्रजा के मंगल-कल्याण के लिए हो, किसी एक व्यक्ति का सबसे पृथक अपना कोई वैयक्तिक हित नहीं है । हित ही नहीं, अस्तित्व भी नहीं है | सबके हित में ही सबका हित है, सबके अस्तित्व में ही सबका अस्तित्व है । समष्टि की दृष्टि से ही सोचिए, विचारिए, और कर्म कीजिए ।
अतीत के अनेक काल खण्डों से मानव, से कटकर अलग-थलग पड़ गया है । सामूहिक सुख-दु:ख का, उत्थान-पतन का विचार ही भूल गया है । यही कारण है कि कभी धर्म के नाम पर, तो कभी जाति-वर्ण के नाम पर, कभी क्षुद्र क्षेत्रीयता के नाम पर, तो कभी प्रान्तीयता के नाम परं मानव एक-दूसरे से घृणा, विद्वेष करता रहा है, निरपराध स्त्री-पुरुषों का खून तक बहाता रहा है । यह संकीर्ण मनोवृत्ति मेरे यहाँ नहीं चलेगी । खबरदार, लूट-पाट, हत्या, अन्ध-विश्वास, कदाचार, छल-कपट, नारी जाति पर क्रूर अत्याचार, बलात्कार जैसे अपकर्मों से मुझे कलंकित किया, तो उसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे । इन काले कर्मों से किसी का भी भला नहीं है | अपने मन को उदात्त बनाये रखना, उसे दया, करुणा, प्रेम, सद्भावना, पारस्परिक रचनात्मक सहयोग आदि से रसस्निग्ध बनाए रखना | धरती को नरक बना दिया है तुम लोगों ने अतीत के कुछ वर्षों में । वह नरक अब ध्वस्त करना है, और धरती पर स्वर्ग उतारना है। स्वर्ग उतार लाना असंभव या अशक्य नहीं है | अपेक्षा है, प्रामाणिकता के
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