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मातृजाति की गरिमा का प्रश्न ?
मातृजाति की महिमा के गुणगान तो भारत के प्राचीन साहित्य में खूब धड़ल्ले से मिलते हैं । उसे देवी जैसे गौरवशाली पद से सम्बोधित भी किया है । परन्तु उसके साथ उसके गौरव के अनुरूप न्याय बहुत ही कम प्राप्त हुआ है, उसका उपयोग एक साधारण भोग्य वस्तु के रूप में होता रहा । इसके सम्बन्ध में अभी दुर्भाग्य से कुछ कम ही सोचा गया है, दो-चार भूले-बिसरे अपवादों को छोड़कर |
वेद जैसे पवित्र शास्त्र वह पढ़ नहीं सकती । पवित्रता का प्रतीक यज्ञसूत्रयज्ञोपवीत वह पहन नहीं सकती । गायत्री जैसे मंत्र का वह उच्चारण कर नहीं सकती । आज के विकासशील युग में भी शंकराचार्य जैसे धर्मगुरु उक्त निषेधों की खुले आम घोषणा करते हैं । खेद है, जैन-धर्म जैसा उदार कहा जाने वाला धर्म भी धीरे-धीरे नारी-जीवन के प्रति संकीर्ण एवं अनुदार मनोवृत्ति का शिकार होता गया । उसने भी दृष्टिवाद जैसे उच्च आगम का स्त्री के लिए निषेध कर दिया । स्त्री आचार्य और उपाध्याय जैसे उत्कृष्ट पद भी प्राप्त नहीं कर सकती । जैन धर्म का एक वर्ग तो स्त्री को मुनि धर्म का अधिकारी भी नहीं मानता । और जब मुनि धर्म नहीं, तो मोक्ष भी नहीं । निषेधों की शृंखला इतनी दूर तक पहुँच गई है ।
हजारों सीताएँ लोकापवाद के झूठे लांछनों पर निर्जन वनों में छोड़ दी गई हैं । जिनके प्रति वे समर्पित थीं, उन पतियों के द्वारा ही ये लोम-हर्षक काण्ड हुए हैं । सतीत्व की परीक्षा देने के लिए वे दहकते अग्नि कुण्ड में भी कूदी हैं । हजारों अंजनाएँ रोती-बिलखतीं हिम्न वनों में भटकती रही हैं । -कलावती जैसी पवित्र नारियों के हाथ काट डाले गए हैं । पाँच-पाँच सौ के समूह में उन्हें एक साथ अग्नि में जलाकर भस्मसात् कर दिया है । साधारण
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