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बस पुन: अपने पथ पर बढ़ चली | यात्रियों के मन में खुशियाँ उछल रही थीं, सभी कृतज्ञता की भाषा में एक स्वर से युवक को धन्यवाद दे रहे थे । अनेक बंगाली परिवार उस असमी युवक को उपहार भी अर्पण करने लगे थे । किन्तु, युवक ने इससे इन्कार कर दिया | और तो क्या, बार-बार साग्रह पूछने पर अपना नाम, धाम, पता तक भी न बताया | वह शान्त स्वर से एक ही बात कहता रहा – “मैं भारतीय हूँ। और मैंने मानवता के कर्तव्य का पालन किया है । इसमें यशप्रतिष्ठा या ऐसा ही और कुछ पाने का कोई प्रश्न ही नहीं
यह है वह मानवता, जो मिट्टी के मानव को ज्योतिर्मय देवत्व के शिखर पर पहुँचाती है | सही और शुद्ध मानवता वही है, जो जाति, समाज, धर्म-ग्रन्थ और राष्ट्र आदि की क्षुद्र वृत्तियों से ऊपर उठकर मानवीय संवेदना की अमृत वर्षा करती है ।
अक्टूबर १९८२
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