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आँखों के सामने आ जाता है । 'कर्तव्य की पूर्ति के शीर्षक से श्री दिनेश वैजल का, एक लेख पढ़ता हूँ, तो अन्तर्मन एक अनिर्वचनीय भाव-ज्योति से आलोकित हो उठता है । लेख किसी पुरा - काल की पौराणिक कथा का अंकन नहीं कर रहा है । जीवन के सामने घटित आँखों देखी घटना का वर्णन है । वर्णन क्या है ? मानव के रूप में एक देवतात्मा की कर्तव्य गाथा है ।
असम में काफी समय से बंगाली व विदेशी लोगों के अवैधानिक असम-प्रवेश पर उग्रतम आन्दोलन चल रहा है । असमी जनता के मन इन प्रवासी बंगालियों के विरुद्ध कटुता एवं घृणा से कितने भरे हुए हैं, यह आज कोई गुप्त रहस्य नहीं है । आन्दोलन चल रहा है, ओर उसमें असामाजिक तत्व किस रूप में हिंसा, हत्या एवं लूट-मार के जघन्य काण्डों पर उतर आते हैं, यह आज के समाचार पत्रों की आये दिन की सुर्खियाँ हैं । चर्चित घटना, इसी से सम्बन्धित है ।
दोपहर के समय स्त्री-पुरुषों, बच्चों, बूढों, नौजवानों से खचाखच भरी हुई एक बस तेज गति से गन्तव्य स्थान की ओर दौड़ती जा रही थी कि एक सुनसान जगह पर बदमासों - लुटेरों एवं हत्यारों के एक सशस्त्र समूह ने उसे रोक लिया । हत्यारों के सरदार ने कड़कती क्रूर आवाज में कहा- 'बस में जो भी बंगाली यात्री हों, वे सब-के-सब तुरन्त नीचे उतर आएँ ।'
सहसा यात्रियों पर मौत का भयानक सन्नाटा छा गया । स्त्रियाँ और बच्चे चीखने लगे, अब क्या होगा ? किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था । लुटेरों-हत्यारों के रूप में यमदूत सामने खड़े थे । तभी एक सांवले रंग का साहसी युवक बस से नीचे उतरा और बंगाली भाषा में बोला- “ बासे शुधु अमई बंगाली जात्री आछि । युवक ने साहस के साथ आगे मेरे साथ व्यवहार कर सकते हैं ।
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बस में, केवल मैं ही एक बंगाली यात्री हूँ ।" बढ़ कर सरदार से कहा आप जैसा भी चाहें मैं आपके सामने खड़ा हूँ, बस को जाने दें । "
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लुटेरे चकित रह गए ।
युवक के निर्भीक चेहरे और स्पष्ट वाणी पर से उन्हें यही आभास हुआ कि वह बंगाली नहीं, असमी है । और बस, वे आगे
कुछ भी हिम्मत न कर सके ।
किसी भी यात्री को कुछ भी हानि पहुँचाये बिना
वे सब वापस लौट गए ।
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