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परिवर्तन : समाज की अपेक्षा
एक समय अपेक्षा हुई तो आचार्यों को गृहस्थों के लिए मूर्तिपूजा का निर्णय लेना पड़ा । और अनावश्यक आडंबर बढ़ा तो एक दिन उसका विरोध भी करना पड़ा । एक दिन अहिंसा के आधार पर बकरों और पक्षियों के संरक्षण की परंपरा चली और बकराशाला और पिंजरापोल आदि की स्थापनाएँ हुई । जब इसने, बढ़ते-बढ़ते विकट रूप लिया, यहाँ तक कि चींटी-मकोड़े कीड़ेलट-धुन-खटमल-मक्खी-मच्छर आदि के सामूहिक रक्षा-आयोजनों में ही समाज की समग्र धनजन - शक्ति केन्द्रित हो गई, अन्य जीवनस्पर्शी उदात्त आदर्श विवेक की आँखों से ओझल हो गए, तो समय पर इसका विरोध भी हुआ । भले ही यह विरोध किसी भी रूप में किसी के भी द्वारा हुआ हो । आगे चलकर यह विरोध भी बढ़ते-बढ़ते जब आवश्यक सामाजिक सेवाओं के विरोध तक पहुँच गया, तो आज उसी समाज में वह विरोध शिथिल पड़ा और सामाजिक सेवाओं का पथ पुनः प्रशस्त हो चला । समय और समय पर लिए जाने वाले निर्णयों का ही यह सब प्रश्न है, और कुछ नहीं । एक समय का अच्छा माना जाने वाला निर्णय परिवर्तित समय में पुनः परिष्कृत या परिवर्तित होने की अपेक्षा रखने लगता है । यह तो हुआ जैन परंपरा का रेखाचित्र |
वैदिक परम्परा में परिवर्तनों का दौर
वैदिक या वैष्णव परम्परा के महापुरुष एवं आचार्य भी परिवर्तन के दौर में से गुजरे हैं । उन्हें भी देश - कालानुसार अनेक विकट, किन्तु उचित निर्णय लेने पड़े हैं । श्री शंकराचार्य, श्री रामानुज, श्री वल्लभाचार्य आदि की विभिन्न परम्पराएँ इसी परिवर्तन-धारा में विकसित हुई हैं । किसी समय कर्मकाण्ड का युग था । यज्ञ-याग आदि की भेरी बज रही थी और वह भी एक समय आया, जब उसी परंपरा में उसके विरोध का स्वर मुखरित हुआ । कभी ज्ञानयोग का युग आया तो कभी भक्तियोग का । भक्तियोग भी सगुण, निर्गुण, रामशाखा, कृष्णशाखा आदि विभिन्न धाराओं में शतद्रु बनकर बहता रहा ।
श्रीकृष्ण के निर्णय
महापुरुषों में श्रीकृष्णचन्द्र तो तात्कालिक उचित निर्णय लेने वाली
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