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की रक्षा के हेतु, उन्हें लिपिबद्ध करने के लिए हाथ में कलम पकड़ी । जैन इतिहास के अनुसार कलम पकड़ने वाले ये पहले आचार्य हैं । अवश्य ही विरोध हुआ होगा उनका | आलोचना के कण्टक पथ से उन्हें गुजरना पड़ा होगा | हर नयी बात का विरोध करना प्राय: सर्वसाधारण जनता का स्वभाव ही है । परन्तु जनता को नेतृत्व देने वाले दिशानिर्देशक कब रुककर खड़े रह गए हैं, या चुप बैठ गए हैं ? वे तो निर्द्वन्द्व भाव से गन्तव्य की ओर चलते ही रहते हैं। यदि देवर्द्धिगणी यह साहसपूर्ण निर्णय न करते तो प्रभु महावीर की वाणी का, आगम-सिद्धान्त का, संभव है एक अक्षर भी हमारे पास न होता । जैसे उनके पूर्व विशाल जैन वाड्मय नष्ट हो गया, इतस्तत: भ्रष्ट हो गया, उसी तरह आज यह जो कुछ अवशेष प्राप्त है, वह भी नष्ट हो गया होता |
समय पीछे नहीं लौटता
पात्र के सम्बन्ध में भी यही बात हुई । जैसा कि बृहत्कल्प आदि भाष्यग्रन्थों में लिखा है, आचार्य आर्यरक्षित से पूर्व भिक्षुओं के लिए एक ही पात्र विहित था । आर्यरक्षित ने बदलते देशकालानुसार दूसरे पात्र का भी विधान कर दिया । एक युग था, जब भिक्षु केवल पाणिपात्र था । दूसरा युग आया, जब एक पात्र रखा गया । विरोध इसका भी कम नहीं हुआ होगा। परन्तु आर्यरक्षित जैसे आचार्य समय की माँग को पहचानते हैं और तदनुसार परिवर्तन का निर्णय लेते हैं । और भी अनेक परिवर्तनों की गाथाएँ आगम तथा आगमोत्तर साहित्य में परिलक्षित होती हैं । दिन रात के चौबीस घंटों में एक ब्रार आहार और वह भी दिन के तीसरे प्रहर में एवं रात्रि में तीसरे प्रहर में एक प्रहर की निद्रा आदि-आदि । यह सब कुछ शिथिलाचार नहीं है, समय की अपेक्षा है । एक समय लेखन ही वर्जित था | अब तो बड़े-बड़े धुरंधर उग्राचारी धर्माचार्यों के ग्रन्थों की हजारों प्रतियाँ धड़ाधड़ छपती हैं, जहाँ बहुत-से व्रत-नियमों का सहज ही पारणा हो जाता है | निशीथसूत्र में गृहस्थ से पढ़ने का स्पष्ट निषेध है; किन्तु अब तक काफी समय से वेतनभोगी पंडितों से पढ़ा भी जाता है, ग्रन्थ-लेखन का कार्य भी कराया जाता है । यह सब जरा तटस्थ दृष्टि से स्वयं गुरु और गुरुओं के चपरकनाती चमचे देखने का कष्ट तो करें । समय की गति को पीछे ढकेलना सहज नहीं है । वह आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता। धन्य हैं वे, जो इस गति के अनुरूप समय पर निर्णय कर लेते हैं, संघ एवं समाज को बिखेरने से बचा लेते हैं ।
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