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परंपरा के कर्णधार ही हैं | वस्तुत: वे दिशानिर्देशक पुरुषोत्तम हैं । उनके निर्णय बहुआयामी हैं | आभीर जाति जो महाशूद्र की संज्ञा से अभिहित थी, उसके बालगोपालों के साथ कृष्ण खाते-पीते हैं | गाएँ चराते हैं | अन्तर्दानवरूप क्रूर, अरिष्ट वृषभ और पूतना स्त्री का वध करते हैं | जो उस युग में पातक माना जाता था । अत्याचार से ग्रस्त रुक्मिणी का उसके उद्धार के हेतु अपहरण करते हैं | महाभारत-युद्ध में अर्जुन के रथ के सारथि बनते हैं, जो सूतकर्म हैं । सूतकर्म शूद्र-कर्म माना गया है, जो क्षत्रिय के लिए वर्जित है ।
महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण के अनेक निर्णय तो ऐसे हैं, जो नीति की मर्यादा के बाहर जाते हैं । भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि के संहार की घटनाएँ छल से लिप्त हैं, शास्त्र-मर्यादा के विरुद्ध हैं | अर्जुन आदि महारथी उसी शास्त्र एवं नीति के व्यामोह में वह काम करना भी नहीं चाहते थे । परन्तु श्रीकृष्ण ने वह सब कराया । यदि ऐसा न किया या कराया जाता, तो तत्कालीन दुर्योधन जैसे उद्दण्ड मर्यादा-हीन शासकों द्वारा प्रजा का कितना भयंकर उत्पीड़न होता, जिनके हाथों अपने ही परिवार की द्रौपदी जैसी सती, साध्वी, सदाचारिणी नारियों को अपमानित होना पड़ा, भरी सभा में उन्हें नग्न करने की कुचेष्टा की गई । अत्याचार को समाप्त करना भी एक धर्म है । यदि धर्म-शास्त्र या पूर्व परंपरा की कुछ नैतिक मान्यताएँ उसमें बाधक बनती हैं, तो श्रीकृष्णचन्द्र जैसे महापुरुष उनकी उपेक्षा करते हैं और समय पर उनके विरुद्ध भी कार्यकारी आवश्यक निर्णय लेते हैं । शास्त्रों एवं धर्म-परंपराओं के कुछ विधान शाश्वत नहीं होते । उन पर भी देश-काल की छाया पड़ी होती है, जो समय पर परिवर्तन की अपेक्षा रखती है |
सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन का चक्र
सामाजिक क्षेत्र भी परिवर्तन से अलिप्त नहीं रहा है । सुदूर अतीत में स्त्रियों में पर्दा जैसी कोई चीज नहीं थी । एक समय आया, जब पर्दा आवश्यक हो गया । और आज वह समय फिर आया कि पर्दा अनावश्यक हुआ, अतः उसका विरोध हुआ । इसी प्रकार दहेज, मृतकभोज, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, स्त्रीशिक्षा आदि अनेक जीवन-विधाएँ विधि से निषेध में, निषेध से विधि में बदलती रही हैं । ये शाश्वत नहीं, युगधर्म के तत्त्व हैं, इन्हें परिवर्तन के चक्र में यथासमय परिवर्तित होना ही होगा ।
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