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अनाकुलता का मूल मंत्र नियतिवाद
साप्ताहिक हिन्दुस्तान ( ३० अप्रैल ७७ ) में दिलचस्प, साथ ही मार्मिक एक लेख है, "गोली-गोली पर लिखा है खाने वाले का नाम "
विगत में पाकिस्तान के साथ हुए भारत के युद्ध प्रसंगों का रोमांचक वर्णन है । एक इन्फेन्ट्री यूनिट आक्रमण के लिए तैयार हो रही थी । उसमें १६ साल का एक युवक था, जो बहुत डर रहा था । उसने अपने अफसर से बहुत अनुनय-विनय के साथ हाथ जोड़कर कहा – “ सर, मैं अपने माँ-बाप का अकेला लड़का हूँ। आप मुझे यहीं छोड़ दें । "
पर, ऐसा कैसे हो सकता ? क्योंकि इसका असर दूसरों पर अच्छा नहीं पड़ता | अफसर ने जवान को खूब हिम्मत बँधाई । परन्तु वह युवक तैयार नहीं था । रोने लगा । अफसर को दया आ गई, पर फिर भी उसने कहा, " चलो, जहाँ तक चल सको । जब सामने हाथों-हाथ लड़ाई का मौका आएगा, तब तुम कहीं छुप कर बैठ जाना । "
अपनी-अपनी बन्दूक लेकर रात के अंधेरे में सभी सैनिक आगे बढ़े । शत्रु की एक चौकी को हस्तगत करने के लिए लड़ाई हो रही थी । आधे घंटे तक वह युवक साथ था । बाद में एक झाड़ी की ओट में बैठ गया | बाकी सैनिक जूझते रहे । अफसर बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ रहा था । गोलियाँ परस्पर चलती रहीं । दुश्मन के पास गोला बारूद कम था । अत: वह चौकी छोड़कर पीछे हट गया । अपनी तरफ का अभी तक कोई भी सैनिक मारा नहीं गया था । ज्यों ही चौकी पर अधिकार हुआ, फौरन लाल रोशनी का 'क्लीयर दिया गया, जिससे आस-पास के भारतीय सैनिक टुकड़ियों को मालूम हो जाए कि चौकी पर अपना अधिकार हो गया है ।
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