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प्रवेश कर जाए । यदि कभी भूल से अहं प्रवेश कर जाए तो तत्काल उसका विरेचन कर मन को खाली करो । यह शुन की सुगन्ध के साथ अशुभ की दुर्गन्ध बड़ी ही भयंकर है । यह शुभ को चौपट कर देती है । इस स्थिति में, शुभ की सुगन्ध-सुगन्ध न रहकर दुर्गन्ध ही हो जाती है । शुभ का आनन्द तो अमृतरस है । अत: उसे तो मन में बनाए रखो, और अहं को बाहर निकाल फेंको । कैसा भी अशुभ हो, उससे मन-मस्तिष्क को खाली करते रहना ही श्रेयस्कर है ।
जहाँ तक मेरा अध्ययन है, चिन्तन है, मेरी समझ है, 'निसीहिं का यह सैद्धान्तिक मर्म है । अतः साधक को 'निसीहि केवल बोलना ही नहीं है, उसके फलित रहस्य को समझना भी है । शब्द से आगे का सत्य शब्द का भाव है । उस भाव की अनुभूति ही साधना का अमृत तत्त्व है ।
मई १९७८
(१८९)
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