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________________ होने वाली जीवन-यात्रा में दिन भर में जो कुछ भी इधर उधर के दुर्विकल्प अन्तर्मन में संचित हो जाते हैं, सायंकालीन प्रतिक्रमण में आत्मलोचन के द्वारा उन्हें साफ कर दिया जाता है और रात्रि के दुर्विकल्पों को प्रातःकालीन प्रतिक्रमण में । यह सुबह शाम 'अकरणिज्ज' का 'मिच्छामि दुक्कडं मन को खाली करता है, उसे हलका और शुद्ध बनाता है । पाप कर्मों की बार-बार स्मृति ग्लानि को जन्म देती है और ग्लानि जन्म देती है हीन-भावना को | और हीन-भावना मानव जीवन का सबसे भयंकर अभिशाप है, जो उसे सब तरह से बर्बाद कर देता है । प्रतिक्रमण साधक को इस तरह व्यर्थ ही बर्बाद होने से बचाता है । उसमें पवित्रता की भावना जगाता है, और नए उत्साह की तरंग के साथ भविष्य में सजगतापूर्वक सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है । अशुभ का विसर्जन होना ही चाहिए । इतना ही नहीं, अशुभ की स्मृति का भी विसर्जन होना आवश्यक है । कृत अशुभ की बार-बार स्मृति भी चेतना को धूमिल बना देती है । जिस हाथ से मल धोया है, उसे धो दिया और वह साफ हो गया । बस, शुद्धि का कार्य पूरा हो गया । घोने के बाद भी यदि हाथ में लगे मल को याद करता रहेगा, तो बस, विनष्ट हो जाएगा मानव । तन का स्लान मल, और मल की स्मृति दोनों को ही साफ करने के लिए है । इसी प्रकार प्रतिक्रमण हो या इसी से सम्बन्धित अन्य कोई धार्मिक साधना हो, वह भी मानव मन को पाप और पाप की स्मृति दोनों से मुक्त करती है । भविष्य में कोई पाप कर्म न होने पाए, यह सजगता एक अलग बात है, और हर दिन अतीत के कृत पापों का रोना, रोते रहना, अलग बात है । प्रतिक्रमण, जप, प्रभुस्मरण आदि करके भी यदि किसी को यह विश्वास है कि मैं शुद्ध नहीं हुआ हूँ, वही पुराना पापी का पापी, और मलिन का मलिन हूँ, तो इसका अर्थ है कि उसे धर्म साधना की पवित्र शक्ति में विश्वास नहीं है । गंगा में डुबकी लगाकर भी यदि गंदगी का रोना है, तो उस पागल की कोई चिकित्सा नहीं है । योग की एक प्रक्रिया है, विरेचन की । प्राणायाम में अन्दर की अशुद्ध वायु को विरेचन के द्वारा बाहर में विसर्जित किया जाता है । विरेचन का अर्थ है, खाली करना | यह एक श्वास का व्यायाम है, किन्तु योग इतना ही नहीं है, जीवन में से अशुभ संकल्पों, विचारों एवं विकारों का भी विरेचन होना चाहिए । यही वास्तविक अध्यात्म-योग है । शुभ का पूरक और अशुभ का विरेचन ही जीवन में समरसता ला सकता है । शुभ का पूरक होने के साथ एक सावधानी और अपेक्षित है । वह यह कि कहीं शुभ के साथ शुभ का अहंभाव भी मन में न (१८८) HTRANORAMACHAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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