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सम्बन्धित तो है यह सब चर्चा भी । फिर भी कुछ दूर चले गए हैं । आईए फिर प्रस्तुत पर, कुछ और चर्चा कर लें ।
तीर्थंकरों की देशना अर्थ पर, अर्थात् भाव पर आधारित होती है, शब्द पर नहीं | परन्तु वह कैसे शब्दातीत होती है, इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता । तीर्थंकरों की उस सर्वातिशायिनी उच्च भूमिका से हम अनन्त गुणहीन नीचे की भूमिका पर हैं । हमारी स्थिति ऐसी ही है, जैसे कोई बौना उछल-उछलकर चांद को छूने की हास्यास्पद चेष्टा करता हो । तीर्थंकरों की अपनी इस रहस्यमयी गूढ स्थिति का पता बस उन्हें ही है | और किस के पास है इस अनन्त को नापने की प्रज्ञा का गज | 'खुदा की बातें खुदा ही जाने जैसे भक्तिविनम्र शब्द ही हम लोगों का थोड़ा बहुत समाधान कर सकते हैं ।
फिर भी आप मुझ से इस रहस्य का कुछ अता-पता लगाना चाहें तो मैं इतना ही कुछ कह सकता हूँ, कि यह सब शास्त्रमोह के एकान्त आग्रह को छोड़ देने की एक सूचना है | भगवान के द्वारा उपदिष्ट सत्य का मर्म भाव में है, शब्दों में नहीं । भाषा और शब्दों की पवित्रता को लेकर द्वन्द्व युद्ध में उतरे लोगों को इस पर से समझ लेना है कि भाषा कोई भी हो, न वह पवित्र होती है
और न अपवित्र । पवित्र होता है उसमें का जीवन को निष्कलुष एवं निर्मल बनाने वाला भाव | प्यास जल से बुझती है, सोने चांदी के जलपात्रों से नहीं । पात्र ओंठ तक आकर रह जाते हैं । शब्द भी कान तक टकराकर बाहर ही रह जाते हैं । अन्तर् चेतना में तो भाव ही उतरता है, शब्द नहीं ।
शास्त्र भी क्या है ? और क्या है उसका सामर्थ्य ? यदि शास्त्र में ही सचमुच सत्य को उद्घाटित करने की क्षमता होती, तो आज ये जितने भी मतमतान्तर हैं, पंथ और सम्प्रदाय हैं, सब शास्त्र के आधार पर ही तो खड़े हुए हैं । सबके सब एकमात्र अपने पास ही सत्य के होने का दावा करते हैं, दूसरों को एकान्त मिथ्या बताते हैं | और इसके लिए हर कोई शास्त्रों के प्रमाण लिए घूम रहा है । बड़ी विचित्र स्थिति है | वे ही एक शास्त्र हैं, उनमें से एक मूर्तिपूजा का विधान प्रमाणित करता है, तो दूसरा उसका निषेध । एक दयादान आदि का सार्वजनिक विधान घोषित करता है, तो दूसरा उसका विरोध । दो चार क्या, अनेक ऐसी आचार-विचार सम्बन्धी बातें हैं, जो शास्त्र के नाम पर एक दूसरे से टकराती हैं । अत: एक ही भगवान महावीर की परंपराओं में,
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