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________________ अनार्य, द्विपद-मानव, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपसदि सभी को अपनी-अपनी हित, शिव, सुखरूप भाषा में परिणत हो जाती है । समवाय अंगसूत्र का मूल पाठ है - " सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय मिय-पसु-पक्खि-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहय भासत्ताए परिणमइ ।" आप समझ सकते हैं, यह कितना विलक्षण चमत्कार है । यह कौन से देश की भाषा है जो सभी प्राणियों की सभी भाषाओं में परिणत हो जाए । तत् तत् सभी भाषाओं का रूप ले ले, और उन्हें अर्थ बोध करा दे। कहने को इसे अर्धमागधी भाषा कहा है, पर प्रश्न है, आदि तीर्थंकर कौशलदेशीय भगवान ऋषभदेव, सुदूर महाविदेहक्षेत्रस्थ विहरमाण सीमंधर जिन, और तो क्या, अनन्त अतीत और अनन्त भविष्यकाल के विभिन्न भाषा-भाषी देशों के तीर्थंकरों का मागधी या अर्धमागधी आदि क्षेत्रीय भाषाओं से क्या सम्बन्ध रह जाता है ? यह सब वर्णन सूचित करते हैं कि लोकातिशायी तीर्थंकरों का प्रवचन वस्तुत: लोकातिशायी ही है । लोक के किसी नियम, उपनियम या प्रतिनियम से उसे परिबद्ध नहीं किया जा सकता । इसी लिए आचार्य उन्हें अर्थ का प्रवक्ता कहते हैं, शब्द का नहीं । शास्त्र शब्द एवं भाषा रूप होते हैं । अत: उनकी भाषा किसी एक देशविशेष की ही भाषा होती है । और तीर्थंकर अखिल विश्वहितंकर होने के नाते किसी देशविशेष से प्रतिबद्ध होते नहीं हैं। इसीलिए तीर्थंकर किसी भाषा विशेष से प्रतिबद्ध होने वाले शास्त्र की रचना नहीं करते हैं | शास्त्र का निर्माण गणधर करते हैं, तथा उत्तरकालीन आचार्य करते हैं । जैसा कि भद्रबाहु स्वामी ने कहा है – “ सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।” अत: किसी भी शास्त्र में तीर्थंकर देवों के अमुक अंश में कुछ भाव हो सकते हैं | शब्द नहीं । जो लोग वर्तमान शास्त्रों के लिए यह कहते हैं कि अक्षर-अक्षर भगवान का कहा हुआ है, उन्हें तटस्थ दृष्टि से विचार करके यथार्थ को गहराई से स्पर्श करना चाहिए । गणधर छद्मस्थ हैं, असर्वज्ञ हैं | अत: उन्होंने भगवान के भाव को कितना किस रूप में ग्रहण किया और कितना उसमें से अपने शब्दों में संकलित किया, यह सब प्रत्येक तत्त्वजिज्ञासु साधक के लिए विचारणीय हो जाता है । सागर एक चुल्लू में न कभी समाया है, और न कभी समा सकेगा। प्रत्यक्षज्ञान और स्मृतिज्ञान में अन्तर है, आकाश और पाताल के अन्तर से भी महान, अतिमहान | गणधरों का ज्ञान, जो उन्हें तीर्थंकरों के उपदेश से प्राप्त होता है, मात्र स्मृतिज्ञान है । इसी लिए श्री सुधर्मा जैसे गणधर अपने प्रवचन के प्रारंभ में ही कहते हैं “ मैंने सुना है आयुष्मन्! भगवान ने यह कहा है -" सुयं मे आउसं, तेणं भगवया एवमक्खायं ।" (१८२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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