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महत्ता शब्द की नहीं, भाव की है
अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन के धर्ता तीर्थंकर, केवली जिन अपने प्रत्यक्ष दर्शन से सत्य के रहस्य का, मर्म का उद्घाटन करते हैं । अत: वे अर्थ के प्रवक्ता हैं, जैसा कि पंचम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु ने कहा है अत्यं भासई अरहा । "
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तीर्थंकरों का शब्द पर भार नहीं होता है । शब्द चूँकि किसी भाषा का होता है । और भाषा उसी भाषा-भाषी के लिए सीमाबद्ध हो जाती है । उससे भिन्न व्यक्ति के लिए वह अरण्यरोदन के सिवा अन्य कुछ अर्थ नहीं रखती । कोई भी भाषा हो, वह शब्दों का एक लघु बहुत छोटा सा पात्र है, जिसमें सत्य के अपार क्षीरसागर की चन्द बूँदें ही समाहित हो सकती हैं । उन चन्द बूँदों से इने-गिने चन्द व्यक्तियों की ही प्यास बुझ सकती है । अत: वह अमुक अल्पदेश एवं अमुक अल्पकाल तक ही अपनी बोधशक्ति का प्रयोग कर पाते हैं । सर्वदेश तथा सर्वकाल जैसा बोध शब्द के पास न कभी हुआ है और न कभी होगा ।
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" देवाधिदेव तीर्थंकरों की इसीलिए शब्द से परे होकर बोधयात्रा है । उनका उद्घोषित सत्य पशु पक्षी तक भी समझ लेते हैं, और उस पर यथाशक्ति चल भी पड़ते हैं इस धारणा के मूल में इस या उस भाषा के आग्रह का प्रश्न स्वयं उखड़ जाता है । पशु पक्षियों के पास कौन सी और किस देश की भाषा है, जिसके माध्यम से वे प्रभु की धर्मदेशना का अर्थबोध प्राप्त करते हैं ।
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तीर्थंकरों की देशना के लिए दिगम्बर जैनाचार्यों ने लगता है, इसी ' अत्थं भासई अरहा के आधार पर अनक्षरी वाणी का प्रयोग किया है 1 यह केवल ध्वनि नहीं, दिव्य - ध्वनि है । अतः वह भगवान का प्रतिहार्य है । आगम की भाषा में अतिशय है । यह अतिशय नहीं, तो क्या है कि जो देशना आर्य,
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