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समज और समाज के बीच की रेखा
संस्कृत-साहित्य में एक ही ध्वनि के दो शब्द काफी प्रसिद्ध हैं - 'समज' और 'समाज । उच्चारण की दृष्टि से केवल 'अ'कार और 'आकार का अन्तर है । परन्तु ध्वनि का यह छोटा-सा अन्तर भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा अन्तर रखता है ।
'समज' और 'समाज' का सामान्यत: 'समूह' अर्थ है , किन्तु विशेषता की दृष्टि से इस 'समूह' अर्थ में काफी अन्तर पड जाता है । बात यह है कि पशुओं के समूह को 'समज' कहते हैं और मनुष्यों के समूह को 'समाज' । पशुओं का समूह, केवल समूह होता है । उसमें कोई बौद्धिक एकसूत्रता नहीं होती । न कोई एक उद्देश्य होता है और न कोई लक्ष्य । पशुओं के सामूहिक चिन्तन द्वारा निर्धारित जैसा कोई एक रूप नहीं होता | साथ-साथ रहते और चलते हुए भी पशु एक दूसरे के सहयोगी नहीं होते | उनके जीवन का अधिकांश वैयक्तिक ही होता है । इसके मूल में पशुओं का मानस अविकसित है। यही कारण है कि पशुओं ने अपनी सभ्यता के विकास की दिशा में कोई प्रगति नहीं की | लाखों वर्ष पहले जो पक्षी जैसा घोंसला बनाते थे, आज भी वे वैसा ही बना रहे हैं । लाखों वर्ष पहले जंगली जानवर जैसे बिल या धुरी बनाते थे, वैसे ही आज बनाते हैं – कोई अन्तर नहीं; एक इंच भी फेरफार नहीं । उनकी सामूहिक शक्ति ने कोई नया निर्माण नहीं किया | एक दूसरे की सुख-सुविधा के लिए कोई नई उपलब्धि नहीं की।
१. इसी प्रकार पशुओं-कुत्ते आदि के भौंकने को 'भषण और मनुष्यों के बोलने को भाषण कहते हैं । सम्भवत: पशु-मानव की एक ही क्रिया के नामों में हस्व-दीर्घ के इस भेद में दोनों के मौलिक अन्तर का भाव छिपा है ।
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