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पशु समूह के रूप में एक जगह खडे अवश्य नजर आते हैं ; परन्तु उनके इस प्रकार एक जगह खड़े होने का कोई मौलिक आदर्श नहीं हैं। और सच बात तो यह है कि वे एकत्रित होते नहीं, अपितु किए जाते हैं । ग्वाला डंडों की मार से उन्हें इधर उधर से घेर-घार कर एक जगह लाकर खडा कर देता है, बस, और कुछ नहीं । अत: यह समूह केवल समज है, समाज नहीं ।
समाज मनुष्यों का ही होता है | चूँकि मनुष्य मनन-शील प्राणी है, अत: उसके पास मनन है, चिन्तन है । मनन और चिन्तन हर कार्य एवं चेष्टा को सोद्देश्य बनाता है | वह सामूहिक चेतना को विकसित करता है | सुख-दुख में एक दूसरे का सहयोगी होना, एक साथ हँसना या रोना, परस्पर मिलकर एक-दूसरे की समापतित समस्याओं का समाधान खोजना, मानव की मनन-शक्ति का सुपरिणाम है । मानव किसी महत्त्वपूर्ण निर्माणकारी उद्देश्य को लेकर ही संघटित होता है, समूह बनाता है । इसी भाव में से मानव सभ्यता का विकास हुआ है । चिर अतीत के उस वन्य जीवन से कितनी मंजिलों को पार कर आज मानव कितनी ऊँचाइयों पर पहुँच गया है । आज मानव नीचे गहराई में समुद्रों के तल को छू रहा है, और ऊपर ऊँचाई में चन्द्रतल पर विचरण कर रहा है । अरबों मील दूर सितारों पर उसके अपोलो या पायोनियर यान चक्कर काट रहे हैं और धरती पर वहाँ के चित्र भेज रहे हैं । यह मानव की सामूहिक सुनियोजित मनन एवं कर्म शक्ति का प्रतिफल है ।
परस्पर एक दूसरे को भावित करने वाला ही सचमुच में मानव है। पतिपत्नी क्या हैं ? क्या पशुओं में भी पति-पत्नी होते हैं ? नहीं होते । क्यों नहीं होते, इसलिए कि उनमें विवाह नहीं होता । नर-मादा के रूप में उनके केवल क्रियाशील तन मिलते हैं, मननशील मन नहीं । यही कारण है कि पशुओं के मिलाप में कोई दायित्व की भावना नहीं, जबकि मानव समाज में यह भावना बहुत गहरी एवं व्यापक होती है । जो बात विवाह के सम्बन्ध में है, वही बात अन्य सम्बन्धों के सम्बन्ध में भी है ।
मानव स्वयं की अन्त:प्रेरणा से संघटन के लिए आगे बढा है | इसी में उसका समाज के रूप में विकास हुआ है । वह पशुओं की तरह डंडों की मार से बलात् धेर कर एक जगह बाड़े में बन्द नहीं किया गया है | बस, यही है मूल में अन्तर समज और समाज का । जिन मनुष्यों में स्वतः प्रेरित सहयोग भावना
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