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मुखाकृति पर से लगता है, उनके पास से हवा भी डरती हुई निकलती है । लंका के चारों ओर दिन रात सागर गर्जता है, जिस पर हर क्षण मृत्यु नाचती फिरती है। कोई आशा नहीं, राम इस जीवन में यहाँ आ सकेंगे और राक्षसों की अजेय शक्ति को पराजित कर सीता को कैद से छुड़ा सकेंगे । सब ओर से यही एक ध्वनि है, पागल है सीता, जो राम के आने की आस लगाये बैठी है । असंभव है वनवासी राम का लंका में आना | सर्वथा और सर्वदा असंभव । वह मर कर भले ही यहाँ जन्म ले सकता है । जीते जी, अपनी इस वर्तमान देह स्थिति में तो कोटि-कोटि प्रयत्नों के बाद भी वह यहाँ नहीं आ सकता, बिल्कुल भी-बिल्कुल भी नहीं आ सकता । ऐसे नरक जैसे अन्धेरे क्षणों में एक क्षण भी व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता । आत्महत्या कर लेने के सिवा उसके लिए दूसरा कोई मार्ग ही नही रहता है । परन्तु सीता है कि क्रूर मौत के इस अट्टहास करते जंगल में भी साहस के साथ आशा का अविचल आसन जमाये बैठी है । राम आएँगे । राक्षसराज को धराशायी कर मुझे छुड़ाएँगे, अवश्य छुड़ाएँगे यही एक आशा का अमर दीप हरक्षण जलाये रही । और अन्ततः सीता की यह आशा पूर्ण होती ही है । इतिहास साक्षी है इस लाखों वर्ष पुरानी घटना का । यदि सीता आशा छोड़ बैठती तो क्या होता ? आत्महत्या के क्षणों में उसकी सड़ती हुई लाश राक्षसों द्वारा समुद्र में फेंक दी जाती या किसी नरभक्षी राक्षस की भूख बुझाने के काम आती ।
मानव जाति, जिसमें जन्म लेने के लिए स्वर्ग के देव भी आतुर रहते हैं, उसी सर्व श्रेष्ठ जीवन में से प्रति वर्ष लाखों ही स्त्री-पुरुष क्यों आत्महत्या करते हैं । यौवन के साहस भरे प्रांगण में झूमते युवक और युवतियाँ, जिनके द्वारा धरती पर स्वर्ग का निर्माण किया जा सकता था, क्यों असमय में ही आत्महत्या के शिकार हो जाते हैं ? एक ही उत्तर है । वह यह कि निराशा के अँधेरे क्षणों में ही इस तरह की दुर्घटनाएँ होती हैं | किसी भी रूप में हो, निराशा ही इन आत्महत्याओं के मूल में है । जब व्यक्ति सब ओर से निराश हो जाता है, आशा की कोई एक किरण भी आँखों के सामने प्रकाशमान नहीं होती है, तब कहीं व्यक्ति अपने हाथों अपना गला काटता है । आत्महत्या, जिसे भगवान महावीर ने पाप नहीं, महा पाप कहा है, करने को प्रस्तुत हो जाता है ।
निराशा के क्षण जीवन में बड़े ही विचित्र होते हैं | एक बार भी यदि कोई व्यक्ति निराशा के अन्धगर्त में गिर जाता है, तो फिर उसका उभरना
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