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कुछ से कुछ हो गए । गए थे नवनिर्मित राजभवन में भोग विलासों की नवनव कल्पना लिए चक्रवर्ती के रूप में; और राज भवन से बाहर निकले तो केवलज्ञान महोत्सव की देवदुन्दुभियों के जयघोषों के बीच, पूर्ण वीत राग मुद्रा में ।
और भरत चक्रवर्ती के ही लघु बन्धु बाहुबली कितने अक्खड, कितने अहंकारी ! बारह वर्ष तक युद्ध में जूझते रहे, इसलिए कि मुझे किसी के सामने झुकना नहीं है । और इस अहं के लिए ही एक वर्ष तक निरन्न निर्जल न हिलना, न डुलना । न बैठना, न सोना । पर्वत के पास, लगा, जैसे एक और पर्वत आकर खड़ा हो गया है । कुछ भी हो, केवल ज्ञान पाना है । केवलज्ञान महोत्सव की देवदुन्दुभियों के जयघोष में ही परमपिता भगवान ऋषभदेव के चरण कमलों में पहुँचना है । पर, अहं के प्रगाढ अन्धकार में केवल ज्ञान की दिव्यज्योति कैसे प्रकट हो सकती है । और फिर ब्राह्मी सुन्दरी बहनों के एक बोल पर बदले तो इतना बदले कि एक कदम उठाते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । भावधारा का इतना विलक्षण मोड़ कि कमाल हो गया । छलांग में कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।
एक ही
अर्जुन माली कितना भीषण हत्यारा ! राजगृह के वन, पर्वत और राजपथ आदि पर लाश ही लाश, खून ही खून ! और जब बदला तो उसी राजगृह में क्षमा का देवता बन गया । शान्त प्रशान्त ! सागर वर-गंभीरा । छह मास में ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । बिल्कुल गौतम और सुधर्मा जैसे गणधर पदधारी अत्युग्र साधक भी पीछे रह गए ।
श्वेताम्बिका नरेश परदेशी राजा, कैसा क्रूर ! जिन्दा आदमी के तिल-तिल बराबर टुकड़े कर डाले । रक्त में सने कुहनी तक दोनों हाथ । और जब शुभ में बदला तो इतनी क्षमा और करुणा कि विष देने वाले पर भी घृणा ओर द्वेष की एक हलकी-सी रेखा भी नहीं उभरी मन में महा
कुमार के दो अमृत वचनों ने जीवन पलट कर रख दिया । अशुभ और शुभ दोनों में ही किनारे के व्यक्ति हैं राजा परदेशी ।
दस्युराज अंगुलीमाल कितना क्रूर, हिंसक राक्षस कि निरपराध स्त्री-पुरुषों को मारता है, उनकी अंगुलियाँ काट-काटकर नित नई माला बनाता है, गले में पहनता है । मरघट में घूमने वाले पिशाच जैसा क्रूर अट्टहास ।
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