________________
एक पर्व है । इसकी चेतना आत्मा से परमात्मा होने की प्रक्रिया से सम्बन्धित है। यह एक आध्यात्मिक साधना है, जो वैयक्तिक होते हुए भी पर्व के रूप में सामाजिक रूप ले चुकी है | व्यक्ति के सीमित क्षेत्र से आगे बढ़ कर जब कोई भी गति, स्थिति समूह के व्यापक क्षेत्र में पहुँचकर विराट रूप लेती है, तो वह पर्व हो जाती है, त्यौहार का रूप ले लेती है । भोजन हर दिन होता है | पर जब वह कुछ विशिष्ट रूप लेता है, समूह का रूप लेता है, तो एक खास दिन से अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और पर्व हो जाता है | पर्युषण भी क्षमा, मैत्री, तप, त्याग आदि सद्गुणों की एक साधना एवं आराधना है । यह हर दिन की, हर रात की, या यों कहिए कि हर क्षण की आध्यात्मिक भावना है । भावना अर्थात् अन्तरात्मा को भावित करने, संस्कारित एवं परिमार्जित करने की आन्तरिक भाव-प्रक्रिया । यह अन्तरात्मा का एक प्रकार का आध्यात्मिक भोजन है, जो अन्तश्चेतना की तुष्टि एवं पुष्टि का अन्तरंग सहज साध्य हेतु है ।
वर्षाकाल की अमुक ऐतिहासिक प्रक्रिया में से गुजरती हुई उक्त आध्यात्मिक साधना ने धीरे-धीरे सामूहिकता का रूप लिया और अमुक मास, पक्ष और तिथियों से सम्बन्धित होकर यह एक वार्षिक पर्व के रूप में परिणत हो गई। प्रतिदिन या प्रतिक्षण की साधना इन दिनों विशेष उत्साह और उल्लास के वातावरण में विशिष्ट रूप लेती ही है, अत: धर्मसंघ और समाज की दृष्टि से इसको वार्षिक पर्व का रूप मिल जाना मानव की एक सहज मानसिक वृत्ति का परिणाम है ।
पर्युषण का मूल अर्थ है सब ओर से सिमट कर एक केन्द्र में स्थित होना, निवास करना । वर्षाकाल में भिक्षु इधर-उधर का विहार अर्थात् भ्रमण छोड़ एक जगह निवास करता है, यह पर्युषण का बाह्य रूप है । जो जैन धर्म की परम्परा में भिक्षुसंघ की आचार नियमावली का एक अंग है । वर्षावास की यह परिकल्पना अन्य धर्मसंघों में भी है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से पर्युषण का भाव है-काम, क्रोध, मद, लोभ आदि अनात्मिक अर्थात् सांसारिक अशुद्ध वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों में जो आत्मा की चेतना भटकती फिरती है, उसे लौटाकर आत्मिक शुद्धता के भावकेन्द्र में स्थिर करना । क्रोध से क्षमा में, अहंकार से निरहंकारता में, माया और दंभ से सरलता में, लोभ से . सन्तोष में, राग और द्वेष से वीतरागता एवं वीतद्वेषता में चेतना का
(१५८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org