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अहंभाव से मुक्ति ही यथार्थ मुक्ति
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बन्धन कर्म में नहीं है, कर्म का कर्ता होने के अहम् में है । मानव को गिराने वाला और कोई नहीं है । उसका अपना निज का ही अहम्' है, 'मैं' है, जो उसे गिरा देता है ।
अहम् किंसी भी रूप में हो, वह अन्ततः कलुष ही है । निर्मलता नहीं मिल पाती ।
जाति और कुल का मद
कुछ लोग श्रेष्ठ जाति और कुल मे अहम् में लिप्त हैं । उन्हें अपनी जाति और कुल से श्रेष्ठ दूसरा कोई नजर नहीं आता । वे दूसरों को हीन दृष्टि से देखते हैं, और जब देखो तब, अपनी जाति और कुल की श्रेष्ठता एवं पवित्रता के ही राग अलापते रहते हैं । हजारों वर्ष हो गए, न वे जिनवर महावीर को समझ पाये हैं, और न तथागत बुद्ध को ही, जिन्होंने कहा था, जन्म की कोई श्रेष्ठता नहीं है । श्रेष्ठता है सत्कर्म की । जन्म शरीर का है, और शरीर सबका मांस, मज्जा, अस्थि, रक्त और मलमूत्र का पिण्ड है । यह तो अशुचि का सबसे बड़ा केन्द्र है । यह खुद भी अशुचि है, और अपने सम्पर्क में वस्त्र, मकान, भोजन आदि हर उपयोग वस्तु को भी अशुचि बना देता है । सुन्दर से सुन्दर बहुमूल्य स्वादिष्ट मिष्टान्न होठों से छूते ही अपवित्र हो जाता है ।
बल का मद
उससे
कुछ लोग बल का अभिमान करते हैं । अपनी ताकत का नशा इतना
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