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हिंसा और अहिंसा का मौलिक विश्लेषण
आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में भारतीय चिन्तनक्षितिज पर दो
सिद्धान्त प्रकाशमान हुए हैं । एक है विनाश का और दूसरा है अविनाश का । एक पक्ष कहता है आत्मा का अस्तित्व क्षणभंगुर है । वह अनन्तानन्त काल का यात्री नहीं है । उसका अस्तित्व क्षणजीवी है । दीपक की लौ जलती जलती कब बुझ जाए, किसे पता है, इस बात का यही स्थिति आत्मा की भी है ।
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दूसरा पक्ष अविनाशी वादियों का है । उसका कहना है कि आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है । आत्मा अनन्तानन्त अतीत से विश्व की यात्रा कर रहा है । उसका कभी एक क्षण के लिए भी विनाश नहीं हुआ । और न अनन्तानन्त भविष्य में ही कभी उसका विनाश होगा । शरीर जन्मता है, मरता है। आत्मा न जन्मता है, न मरता है । आत्मा के जन्म-मरण की जो बात कही जाती है, वह देहाश्रित धर्मों का उसपर आरोप है, यथार्थ नहीं ।
प्रथम पक्ष की चर्चा यहाँ अभी प्रस्तुत नहीं है । यहाँ प्रस्तुत है दूसरा अविनाशी पक्ष । उक्त पक्ष की स्थापना एवं मण्डना भारत के अनेक मनीषियों ने की है । परन्तु उनमें दो महापुरुष इस सम्बन्ध में इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर सुविख्यात हैं, एक हैं 'कृष्ण' और दूसरे हैं 'महावीर' । आत्मा के अविनाशी सिद्धान्त की दोनों ने ही मुक्त कण्ठ से पुरजोर घोषणा की है ।
कर्मयोगी श्रीकृष्ण
कृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन, यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है । और न यह आत्मा एक बार अस्तित्व में आकर नष्ट होता है और नष्ट होकर पुनः अस्तित्व में आता है । क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है । शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होता है ।
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