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________________ आज कहा जा रहा है, विश्व सिमट कर निकट से निकटतर हो गया है । संसार इतना छोटा हो गया है सिमट कर कि जैसे अपने घर के आँगन । • आज हजारों मील दूर सागर पार अमेरिका, इग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों से भारत आदि सुदूर देश ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे घरके आँगन में एक-दूसरे के सामने खड़े हुए घर के लोग । एक दिन क्या, आधे दिन की मुसाफिरी में ही आदमी कहीं से कहीं पहुँच जाता है । प्रात: काल भारत में है, तो मध्यान्ह के समय इंग्लैण्ड में और सन्ध्या होते-होते अमेरिका में । यह दूरी भी अब और कम हो रही है । धरती का छोर स्पष्ट है, घर आँगन के छोर जैसा बन गया है । यह सब हुआ है और हो रहा है । परन्तु खेद है, मानव का हृदय, इन्सान का दिल एक-दूसरे से बहुत दूर होता जा रहा है । पड़ोस के दर्दी की आकाश को चीरती चीखपुकार भी हम पास खड़े सुन नहीं पा रहे हैं । यहाँ बैठे एक क्षण में अमेरिका के दृश्य देख सकते । किन्तु सड़क पर पास ही घायल हुआ अपना मानव भाई हमें दिखाई नहीं दे रहा है । हम व्यक्तिगत स्वार्थ में इतने गहरे डूब गए हैं, कि एक-दूसरे के सुख-दु:ख की आवाज हम पास रहते हुए भी कैच नहीं कर पा रहे हैं क्या इस स्थिति में विश्व सचमुच निकट में आ गया है ? नहीं नहीं, भौगोलिक दूरी के अन्तराल को कम करते-करते हम हृदय के बीच की दूरी इतनी बढ़ा चुके हैं कि उसे पाटना एक तरह असम्भवसा हो गया है । , आज सब ओर घृणा, वैर और द्वेष का विष समुद्र लहरा रहा है । व्यक्ति-व्यक्ति में घृणा है, द्वेष है । जाति-जाति में वैर है, विरोध है । अभी मैंने लेबनान के गृहयुद्ध का एक चित्र अखबार में देखा है । वामपंथी मुसलमानों ने एक ईसाई युवक को गोली मार दी है और उसके शव को लम्बे रस्से के द्वारा अपने कार से बाँधकर सड़कों पर बेदर्दी से घसीट रहे हैं, जानवर की तरह । यह क्या है ? मैं चित्र देखते ही सहसा अवसन्न हो गया । क्या यही धर्म है ? क्या यही ईसाई और मुसलमान धर्म की गौरव गाथा है । यह घृणा और द्वेष उस धर्म के क्षेत्र में भी घुस आया है, जो विश्व के प्राणि - मात्र को ईश्वर की सन्तान मानने का और परस्पर भाई-भाई होने का जय घोष करता रहा है । लगता है तनका आदमी तो संख्या की दृष्टि से बढ़ रहा है, पर अच्छे मन का, प्रेम से छलकते दिल का आदमी कहीं नजर नहीं आ रहा है । (१२७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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