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________________ 66 यत्र विश्वं भवत्येकं नीडम् ।" 20 भारत के चिर अतीत में एक युग था, जब मानव हृदय के प्रेम का विस्तार केवल मानव तक ही नहीं, प्राणि मात्र के प्रति था । इसीलिए तो प्रेम की तरंग में भारत का एक ऋषि आवाज लगा गया है। विश्व के सारे के सारे प्राणी मेरे बन्धु है; भाई हैं । और मेरा देश कोई छोटा-सा भूखण्ड नहीं है। अर्थात् समग्र विश्व है । विश्व के सभी छोटे-बड़े मेरे हैं, मैं उनका हूँ ।" मेरा स्वदेश भुवनत्रय है, प्राणी मेरे देश बन्धु हैं । वे " बान्धवाः प्राणितः सर्वे, स्वदेशो भुवन- त्रयम् ।” हम प्रेम में परस्पर इतने रंग गए थे, घुल मिल गए थे कि हमारी आवाज एक हो गई थी, हमारा मन एक हो गया था, हमारे कदम एक हो गए थे । हम साथ बोलते थे, साथ सोचते थे, और साथ ही मिल-जुल कर एक जूट होकर कर्म करते थे । मन, वाणी और कर्म की यात्रा में हम एक साथ चलने वाले सहयात्री थे । तभी तो शिष्यों के प्रति गुरु का यह दिव्य घोष गूँज रहा था भारत की धरती पर, भारत के आकाश पर कि "संगच्छध्वम् संवदध्वम्, सं वो मनांसि जानताम् ।" किन्तु खेद है, आज वह प्रेम का अमृत-कुण्ड सूख रहा है । दूर के लोगों के दुःखों की, पीड़ाओं की, अभावों की अनुभूति तो कौन करेगा ? आज तो माता-पिता के दुःख की अनुभूति पुत्र-पुत्रियाँ नहीं करते हैं और पुत्र-पुत्रियों के दुःख की अनुभूति माता-पिता नहीं करते हैं । भाई-भाई एक दूसरे से कट गये हैं । बहन और भाई एक दूसरे को ठीक तरह से पहचान नहीं पा रहे हैं । सारा प्रेम सिमटकर व्यक्ति के क्षुद्र पिण्ड में कैद हो गया है । यही कारण है, कि मिट्टी के अपने इस जड़ पिण्ड के ही सुख-दुःख आज के मानव की अनुभूति में आते हैं, इसके सिवा और कुछ नहीं । पड़ोसी के साथ घर की दीवार से दीवार मिली है एक ओर; किन्तु दूसरी ओर पड़ोसी एक दूसरे से इतनी दूर हैं कि कुछ पूछो नहीं । जड़ दीवारें तो एक दूसरे से मिल सकती हैं, किन्तु चेतनाशील हृदय एक-दूसरे से नहीं मिल पा रहे हैं । Jain Education International (१२६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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