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मैं सबका हूँ, सब मेरे हैं
मानव-हृदय एक विराट अमृत-कुण्ड है । उक्त कुण्ड में अमृत है-'प्रेम'। यह प्रेमतत्त्व ही है, जो मानवता का विस्तार करता है । मानव के क्षुद्र अहं (मैं) को और मम (मेरे) को दूर-दूर तक हम और हमारे जैसे विराट चिन्तन की अनेक धाराओं में प्रवाहित करनेवाला यह निर्मल प्रेम तत्त्व ही है ।
यह प्रेम ही है, जो माता-पिता के रूप में, पुत्र-पुत्री के रूप में और भाई-बहन के रूप में प्रसार पाता है, व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़कर परिवार बनाता है; परिवारों को परिवारों से जोड़कर समाज का निर्माण करता है । प्रेम न होता तो मानव जंगल में भटकते प्रेत की तरह होता । प्रेत मृत्यु का प्रतीक है! जीवन से सर्वथा दूर !
मानव-हृदय का यह प्रेम ही था, जिसकी कभी यह घोषणा थी, कि-"यह अपना और वह पराया, यह छोटे क्षुद्र हृदय वालों की बात है | जो उदार हृदय हैं, उनके लिए तो धरती पर बसा समग्र विश्व एक अखण्ड परिवार है | कोई पराया नहीं है । सब अपने हैं, सगे-सम्बन्धी हैं ।"
अयं निजः परो वे त्ति, गणना लघुचेतसाम् । उदार चरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
एक ओर वैदिक ऋषि उदात्त मानव हृदय ने कहा था कभी - “ यह विश्व एक घोंसला है । हम सब घोंसले में रहनेवाले एक ही जाति के, एक ही परिवार के स्नेहाप्लुत पक्षी हैं । हम-सबका सुख एक है । एक कर्तृत्व और एक भोक्तृत्व ।”
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