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अशान्ति का मूल कहाँ है ?
___ आज संसार कितना अधिक अशान्त एवं उद्भ्रान्त है | जिधर नजर डालिए उधर ही अशान्ति का दावानल धधकता दिखाई देता है । हर तरफ उचाट है, उद्विग्नता है, खिन्नता है | लगता है, मानवजाति पागलपन की दु:स्थिति में से गुजर रही है । भाग्य से ही ऐसा कोई व्यक्ति, परिवार या समाज मिलेगा, जो अन्दर और बाहर दोनों ही जीवन-मंचों पर प्रसन्नता से मुस्करा रहा हो, तालियाँ बजा रहा हो । अन्यथा रोनेवाले तो रोते मिलते ही हैं, हँसने वाले भी अन्दर में हँसते नहीं, रोते ही हैं, बस जरा सहानुभूति के साथ अन्दर में मन की किसी दुखती रग को छूकर देखिए ।
एक बहन या भाई कुरूप है, रंग जरा साफ नहीं है, तो दुःखित है, अशान्त है, रोता है अन्दर ही अन्दर | यदि कोई सुरूप है, सुन्दर है, तो अस्वस्थता के कारण परेशान है । यदि स्वस्थ भी है कोई, तो कमाने-खाने की चिन्ता है, सुख-सुविधा की चिन्ता है, मान-सम्मान की चिन्ता है । एक, दो, तीन, चार चिन्ता हो तो । यहाँ तो चिन्ताओं का जाला मकड़ी का वह जाला हैं, जिसमें मानव हर क्षण उलझता जा रहा है | क्या परिणाम आएगा, एक दिन इस उलझन का, कुछ कहा नहीं जा सकता ।
एक सज्जन कहते हैं, घर में कुछ भी खाने को नहीं है । भूख से मरा जा रहा हूँ। दूसरे सज्जन मिलते हैं, कहते हैं, बड़ी मुसीबत है । भूख ही नहीं लगती । आपकी कृपा से सब कुछ है । पर, क्या करूँ, कुछ खा नहीं सकता ।
एक सज्जन हैं, कह रहे हैं, जेब खाली है। बच्चों के लिए कुछ भी तो खाने-पीने का प्रबन्ध नहीं कर सकता। दूसरे सज्जन की शिकायत है, बच्चे उडाऊ हैं | मौज-शौक में सारी संपत्ति बेरहमी के साथ स्वाहा कर रहे हैं ।
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