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एक अविवाहित होने से दुःखी है, तो दूसरा विवाहित होकर पत्नी की विपरीत प्रकृति के कारण पीड़ित है ।
एक पुत्रहीन है, रोता है पुत्र के लिए, मनौती करता है देवी - देवताओं की । और दूसरा इसलिए दु:खी है, कि पुत्र नालायक हैं । पता नहीं, कब पूर्वजों की इज्जत को मिट्टी में मिला दे ।
विचित्र स्थिति है, मानव की । संमाधान कहाँ है, इन उलझती जाती समस्याओं का । एक ही समाधान है, और वह बाहर में नहीं, अन्दर में है, मन में है और वह है सन्तोष, वह है इच्छानिरोध ।
अशान्ति का मूल इच्छा में है । हर दुःख के मूल में कोई न कोई अतः जितना मन इच्छा से निस्तरंग सागर के समान
अपूर्ण इच्छा होती है । इच्छा ही दुःख की माँ है । मुक्त होगा, उतना ही वह निर्विकल्प होगा, फलतः प्रशान्त होगा ।
यह शत-प्रतिशत निर्णय प्राप्त सिद्धान्त है, कि मानव के मन मे उठने वाली हर इच्छा न कभी पूरी हुई है, और न होगी । साधारण मानव तो क्या, बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट और धन कुबेर श्रेष्ठी भी अपनी सभी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाए हैं । पौराणिक लोग कहते हैं दैत्यराज रावण चाहता था, कि खारे समुद्रों को मधुर बनाया जाए । अग्नि में से धुआँ समाप्त कर दिया जाए । स्वर्ण में सुगन्ध पैदा कर दी जाए । स्वर्ग में सदेह जाने के लिए एक सुदीर्घ सीढ़ी तैयार की जाए । ईख के मधुर फल लगाए जाएँ । बताइए, इन कल्पनाओं में से कितनी कल्पनाएँ पूर्ण हुई, अधूरी इच्छाओं में उलझा हुआ ही रावण एक दिन दुनिया से उठ कर चल दिया, कुछ नहीं कर पाया । इतिहास में ऐसे एक-दो नहीं हजारों उदाहरण हैं । अस्तु, इच्छाओं से मुक्ति ही दुःख से मुक्ति है, अशान्ति और आकुलता से मुक्ति है । जो प्राप्त है, उसी का ठीक उपयोग करो, उसी में सन्तुष्ट रहकर जीवन-यात्रा चलाओ ।
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मैं यह मानता हूँ, कि एक साधारण मनुष्य सहसा सर्वतो भावेन इच्छा मुक्त नहीं हो सकता । कुछ न कुछ विकल्प भविष्य के लिए उसके मन में खड़े होंगे ही ! अगर ये विकल्प खड़े न होते तो मनुष्य आज पशुओं की भूमिका में
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