________________
यह सब इसलिए हुआ है, कि अज्ञानी मानव ने सुख-दुःख को अंधा बनकर भोगा है, आँख बंद करके इनके पीछे दौड़ा है । सुख-दु:ख के भोग में बुराई नहीं है । जो प्राप्त है, भोगा जा सकता है । भोगना ही होगा । अपेक्षा है आँख खोलकर भोगने की । विवेक की तीसरी अन्दर की आँख खुली है, तो सब ठीक है । कोई भय नहीं, कोई डर नहीं । यथावसर दोनों ही के स्वागत के लिए तैयार रहो । दोनों तुम्हारे लिए मंगल के द्वार खोलेंगे, कल्याण का पथ प्रशस्त करेंगे । दृष्टि बदली कि सृष्टि बदल जाती है, दिशा बदली कि दशा बदल जाती है । सुख-दु:ख दोनों अपने में कुछ नहीं हैं । भला-बुरा कुछ भी तो इनके हाथ में नहीं हैं | आने दो इन्हें । मुस्कराते स्वागत करो इनका ! ज्ञानी आत्मा के लिए दोनों ही वरदान हैं । दोनों ही उत्थान के सोपान हैं । ज्ञानी के लिए सुख तो सुख है ही, दु:ख भी सुख है । वह दु:ख की पृष्ठभूमि में सुख को खड़ा देखता है, जीवन निर्माण के विराट आयाम देखता है । इतिहास पर नजर डालिए, दो चार नहीं, हजारों उदाहरण आपको ऐसे मिलेंगे, जो भीषण दुःखों की दहकती ज्वालाओं में ही तपकर निखरे हैं ।
अज्ञानी का आदर्श मात्र सुख - दुःख है । किन्तु ज्ञानी का आदर्श सुख-दु:ख नहीं, अपितु अनाकुलता है, शान्ति है । अत: वह सुख-दु:ख की अच्छी-बुरी हर स्थिति में अनाकुल रहता है, शान्त रहता है, निर्द्वन्द्व रहता है । वह सुख में भी मस्त, और दुःख में भी मस्त वह ऐसा दीपक है, जो राजा के महल में जलता है, तब भी प्रकाश विकीर्ण करता है, अँधेरे को दूर करता है, और गरीब की टूटी-फूटी झोंपडी में जलता है, तो वहाँ भी उसी शान से अपना आलोक फैलाता है, झोंपडी को जगमगता है, उसे धरती का स्वर्ग बनाता है । दीपक की दृष्टि अपने कर्तव्य कर्म में हैं, महल और झोंपडी में नहीं दीपक बनकर प्रज्वलित रहिए, सुख में भी, दु:ख में भी । दोनों तुम्हारे दास हों, अधिकार में हों, आज्ञाकारी क्रीत अनुचर की तरह । तुम्हें दोनों का स्वामी होना चाहिए | मनचाहा काम लो दोनों से । सावधान ! नीचे गिरकर नहीं, ऊपर सवार होकर काम लो, मनु की मान्य सन्तानो !
जुलाई १९७६
Jain Education International
(९९)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org