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दूर तक गहराई में गिर रहा है । यह सुख तेरे विनाश का षड्यंत्र हे । संभल कर चल मूर्ख!
अनुकूल संयोगों की इच्छा ज्यों ही मन में जागृत होती है, साथ ही एक दर्द उभर आता है छुपा हुआ मन में । यह भगवान महावीर की भाषा में आर्तध्यान है । शरीर में छुपा हुआ काँटा जैसे हर क्षण चुभता है, पीड़ा देता है, ठीक वैसे ही सुख प्राप्ति की कल्पना भी निरन्तर पीड़ा देती है । जैसे भी बने, अच्छे-बुरे साधनों की कुछ भी चिन्ता किए बिना, सुखार्थी मानव सुख पाना चाहता है । हिंसा हो, हत्या हो, झूठ हो, धोखा हो, फरेब हो, चोरी हो, मक्कारी हो, क्रोध हो, घृणा हो, वैर हो, विद्वेष हो, कुछ भी हो, हर मूल्य पर सुख चाहिए सुख के लोभी मानव को । आज तक इन्सान ने जो अत्याचार, अनाचार किए हैं, शूद्र प्राणियों से लेकर अपनी ही मानव जाति तक का जो खून बहाया है, घृणित से घृणित जो क्रूर कर्म किए हैं, सब के मूल्य में यही सुख-लिप्सा का भाव है । जीते जी ही नहीं मरने के बाद स्वर्ग आदि के परिकल्पित सुखों की प्राप्ति के लिए भी कुछ कम अत्याचार नहीं हुए हैं । यज्ञों में जीवित पशु और मानव जलाये गये हैं । देवी-देवता और परमात्मा या खुदा आदि को खुश करने के लिए प्रति वर्ष कितने लाखों एवं करोडों पशुओं की गर्दनें कट रही हैं । मनुष्यों तक की बलि दी जाती है । और तो क्या बली के रूप में अपने प्रिय अबोध पुत्र-पुत्रियों तक के लोमहर्षक, भीषण हत्याकाण्ड भी आए दिन सुनने को मिलते हैं, अखबारों में पढ़े जाते हैं, यह सब क्यों होता है? यदि विवेक का नियंत्रण न रहे तो जल्दी ही आर्तध्यान में से रौद्रध्यान का विष प्रवाहित होने लगता है ।
अज्ञानी आत्मा ही सुख-दुःख में अन्तर करता है । सुख मिलने पर नाचने लगता है, और दु:ख आने पर रोने लगता है । सुख में ही-ही करता है,
और दु:ख में हा-हा, हाय-हाय! एक से राग करता है, दूसरे से द्वेष । वह अन्धा यह नहीं समझता कि दोनों ही बन्धन है । जरा भी असावधान रहा तो, दु:ख-सुख दोनों ही तुझे चकनाचूर कर देंगे । इतिहास साक्षी है, जहाँ लाखों ही स्त्री-पुरुष दु:ख के क्षणों में बर्बाद हुए हैं, वहाँ सुख के क्षणों में भी कुछ कम बर्बाद नहीं हुए हैं। देखा जाए तो दु:ख की अपेक्षा सुख ने ही मानव जाति को अधिक बिगाड़ा है, गिराया है, बर्बाद किया है |
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